पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१४६

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परिच्छेद ) कुसुमकुमारी कुसुमकुमारी ने कहा.-"क्यामेरी बातें अभीतक आपन समझे?" कर्णसिंह,-अरे, मैने समझा तो सही. लेकिन यह क्या सच है ?" कुसुम.---क्यो, इसके सच होने में आपको सन्देह कमा है ?" कर्णसिंह.-" संदेह यह है कि जो लड़कियां देवताओ की भेंट की जाती है, वे व्यभिचार या वेश्यावृत्ति कैसे कर सकती हैं ?" कुसुम,क्यों ? क्या, देवताओ की भेंट होने से उन लड़कियों का मनुप्यन्व कहीं चला जाता है और मनुष्यत्व के बदले में उनमें देवत्व, पशुत्व या जड़त्व आजाता है कि जिसके कारण वे व्यभिचार या वेश्यावृत्ति करने से बची रह सकेंगी?" कर्णसिंह.--" तुम्हारी बातें मेरी समझ में न आई !" कुसुम,--" यह इस देश की अनाथिनी कन्याओं का दुर्भाग्य है कि मेरी याने आपको समझ में अभीतक न आई ! और एक आप हो क्या, आपके समान जितने धर्मात्मा इस देश में अपनी कन्याओं को देवताओं की भेंट किया करते हैं, उनमें से कोई भी मेरा इस बात को न समझ सकेगा।" कर्णसिंह,-"लेकिन नहीं, आज तुमने एक अजीब बात सुनाई, इसलिये इसयात के मनलब का मैं अच्छी तरह समझना चाहता हूं। तुम अब यह बतलाओ कि इस "देवदासी प्रथा" में दोष क्या है?" कुसम ने हँसकर कहा,-"आपने जो अभी यह सवाल किया कि, ' इस देवदासी-प्रथा में दोष क्या है;' इसका यह जवाब है कि इस प्रथा में सिवाय दोष के गुण जग भी नहीं हैं। कर्णसिंह,-(भाश्चर्य से) ऐसा क्या देवदासी-प्रथा मे बिल्कुल दोष हो दोप भरे हुए है।" कसम ने कहा,-" जी हां, इसमे कोई सदेह नहीं, क्योंकि जो बुद्धिमान भलीभांति ध्यान देकर इस प्रथा पर विचार करेगा, उसे यह बात साफ तौर से मालूम होजायगो कि यह 'देवदासी-प्रधा' व्यभिचार और वेश्यावृत्ति की जड़ है और इसे किसी व्यभिचारी महात्मा ने चलाया है: यह ऐसी विलक्षण वात कुसुम ने कही कि जिसे सुनकर कर्णसिह एक दम आश्चर्य के समुद्र में गोते खाने लगे। फिर जरा ठहर कर वे बोले "कममकमारी ! माज यह तुमनं एक बिलकुल नई जार ताज्जुब स मा हुई दान मुझे सनाइ लेफिनम धर्म सम्बन्धी