पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१४२

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परिच्छेद) कुसुमकुमारा। १३३ या पैंतीसवां परिच्छेद. देवदासी प्रथा ! "यः शास्त्रविधिमुत्सज्य, वर्तन कामकाग्नः । न म सिद्धिमवाप्नोति, न सुखं न परां गनिम् ॥ * (गीता) सरे दिन, विवाह होजाने पर, दुलहिन को विदा करा- Cी २ कर कुसुम ने डेरा कूच करने का हुक्म दिया। थोड़ी १२.ही देर में सब सामानों के लैस हो जाने पर कुछ KARON थोडे से आदमियों को अपने साथ रखकर बाकी के सभों को दूलह-चह के साथ आगे बढ़ने की उमने आज्ञा दी। उस समय उसके दिल में एक अजीब धुन पैदा हुई, जिसके कारण उसने राजा कर्णसिंह के पास एक पुर्जा लिना; उस पुर्जे की इवारत यह थी,--- "श्रीमान् परम-पूजनीय श्रीराजासाब-बहादुर की खिदमत में बाद प्रणाम के यह अर्ज है कि मैं श्रीमान् मे नलिये में मुलाकात करके कुछ गुजारिश किया चाहती हूं, चुनांचे अगर कोई तकलीफ़ न होतो थोड़ी देर के लिये मुझे अपनी खिदमत में हाजिर होने का हुक्म दिया जाय: लेकिन शर्त यह है कि जो कुछ मैं आपसे कहूंगी, उसे कोई नीमरा शरम सुन नहीं सकैगा, यानी जहां पर आपके साथ मेरी बातें होंगी. वहां पर कोई दीगर शख्स न रहने पविगा। बारात के कुल लोग दुलह-दुलहिन के साथ रवाना कर दिये गये हैं और मैं सिर्फ आपसे एक गुजारिश करने के लिये ठहर गई है. इस लिये जहां तक जल्द मुमकिन हो, मेरी अर्ज सुन ली जाय, ताकि मैं भी बहुत जल्द यहां ले कूत्र कर सक।" इन पुों को पाकर राजा कर्णसिंह ग्रहुन ही चकित हुए और मन ही मन यों सोचने लगे कि 'यह रण्डी मुझसे किस लिी तम्नलिये में मिला पाहनी है लेकिन उनकी समझ म कुछ भ.