परिच्छेद) कुसुमकुमारी । बसन्त,-'प्यारी, मैं तुमसे हारा; पर यह तो बतलाओ कि तुमने यह सब प्रपंच क्यों रचा है ?" कुसुम,--' इसीलिये कि जिसमें तुम समाज में कायम रहो और तुम्हारे पितरों का पिंड लुम न होजाय ! बसन्त,-"अब तुम भी तो धर्म से मेरी विवाहिता नाही हो न? फिर चाहे समाज न कबूल करें. एर तुम्हारे जो लड़क-बाले होंगे, उनका दिया हुआ पिडा-पानी जरूर हमारे पितरों को पहुंचेगा।" कुसुम,-"मैं सचमुच तुम्हारी स्त्री हुई या नहीं, यह तो भगवान ही जान; और यह भी नारायण ही जाने कि यदि मेरे बेटे होंगे तो उनका दिया हुआ अन्न-जल तुम्हारे पिनरों को पहुंचेगा, या नहीं। क्योंकि इस धर्मसंबंधी बात पर में कुछ सी नहीं कहा चाहती; पर इतना में जरूर समझती हूं कि जब समाज में मैं नहीं घुस सकती और मेरे असलीहाल या मेरी-तुम्हारी शादी की बात को जव समाज वाले नहीं जानते,नद मेरे लड़क. यदि होंगे,-तो- उसी हालियन से देखे या समझे जाबगे. जैसे कि रंडियों के लड़क देने या समझे जाते हैं। पर इंसा में न होने दूंगी और अपनी इस शादी को गुप्त ही रखकर इस संसार से अपना नाम-निशान तक मिटा दूंगा।" बसन्त बड़ी घबराहट और ताज्जुब के साथ कुलुम की चार्ने सुनता रहा, फिर बोला,-... ऐ प्यारी : तुम्हें यह सब क्या सूझा कुतुम,-'प्यारे ! कुछ न पूछो ! यस, चुपचाप जो कुछ मैं कर रही हूं-या करूंगी, उसे तुम देना करा,-या देखा करना।" बसन्त.-"सुनी तो जीतब क्या तुम गर्भपात या भ्रूणहत्या करोगी. या जो बच्चे तुम्हारे पेट से पैदा होंगे. उन्हे भारडालोगी?" कुसुम.---"वाह, वाह ! तुमने भाग तो नहीं पी ली है ? मैं क्या हमल से हूं?" बसन्त,पर हमारा-तुम्हारा साथ है, तो बच्ची का पैदा होना ताज्जुब क्या है। कुसुम,-"ठीक है, पर याद रक्खा कि जब तक एक समझदार औरत लड़का पैदा करना न चाहे, मर्द के हज़ार सिर पटकने पर भी फुछ नहीं होसफता - बसन्त (सावन स ) 'यह बात मेरी समझ में न पाई "
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