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परिच्छेद १०३
कुलोन्नति

नहीं थकूँगा हाथ से, करके श्रम दिन रात।
नर का यह संकल्प ही, कुल का पुण्य-प्रभात॥१॥
पूर्ण कुशल सद्बुद्धि हो, श्रम हो पौरुषरूप।
वंश समुन्नति के लिए, दो ही हेतु स्वरूप॥२॥
वंशोन्नति के अर्थ जब, नर होता सम्बद्ध।
उसके आगे देव तब, चलते हो कटिवद्ध॥३॥
उच्चदशा पर वंश हो, ऐसा मन में ठान।
उठारखे नहिं शेष जो, बनकर उद्यमत्रान॥
श्रेष्ठमनस्वी वीर बह, कृति उसकी गुणवान।
चाहे यद्यपि अल्प हो, तो भी सिद्धि महान॥४॥ (युग्म)
वंशोन्नति का हेतु है, जिसका पुण्य चरित्र।
सदा मान्य वह उच्च नर, उसका जग है मित्र॥५॥
धन में बल में ज्ञान में, कुल पावे उच्चार्थ।
नर के जिस ही यत्न से, सत्य बही पुरुषार्थ॥६॥
ज्यों पढ़ते हैं वीर पर, रण में रिपु के पार।
त्यों ही आता लोक में, कर्मठ पर कुलभार॥७॥
उन्नति-रागी को सभी, भले लगें दिन-रात।
चूक करे से अन्यथा, होता वंश-विधात॥८॥
कुलपालक की काय लख, उठता एक विचार।
विपदा या श्रम अर्थ क्या, दैव आकार॥९॥
जिस घर का उत्तम नहीं, रक्षक पालनहार।
जड़ पर विपदा-चक्र पड़, मिटता वह परिवार॥१०॥