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परिच्छेद ६२
पुरुषार्थ

१—यह काम अशक्य है, ऐसा कहकर किसी भी काम से पीछे न हटो, कारण पुरुषार्थ अर्थात् उद्योग प्रत्येक काम में सिद्धि देने की शक्ति रखता है।

२—किसी काम को अधूरा छोड़ने से सावधान रहो, कारण अधूरा काम करने वालों की जगत मे कोई चाह नहीं करता।

३—किसी के भी कष्ट के समय उससे दूर न रहने में ही मनुष्य का बड़ापन है और उसको प्राप्त करने के लिए सभी मनुष्यों की हार्दिक सेवा रूप निधि (धरोहर) रखनी पड़ती है।

४—पुरुषार्थहीन की उदारता नपुंसक की तलवार के समान है, कारण वह अधिक समय तक टिक नही सकती।

५—जो सुख की चाह न कर कार्य को चाहता है वह मित्रों का ऐसा आधारस्तम्भ है जो उनके दुख के आँसुओं को पोंछेगा।

६—उद्योगशीलता ही वैभव की माता है, पर आलस्य दारिद्रय और दुर्बलता का जनक है।

७—कङ्गाली का घर निरुद्योगिता है, लेकिन जो आलस्य के फेर में नही पड़ता उसके परिश्रम में लक्ष्मी का नित्य निवास है।

८—यदि मनुष्य कदाचित वैभवहीन हो जावे तो कोई लज्जा की बात नहीं है, परन्तु जानबूझकर मनुष्य श्रम से मुख मोड़ें यह बड़ी ही लज्जा की बात है।

९—भाग्य उल्टा भी हो तो भी उद्योग श्रम का फल दिये बिना नही रहता।

१०—नो भाग्यचक्र के भरोसे न रहकर लगातार पुरुषार्थ किये जाता है वह विपरीत भाग्य के रहने पर भी उस पर विजय प्राप्त करता है।