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परिच्छेद ६०
उत्साह

उत्साही नर ही सदा, हैं सच्चे धनवान।
अन्य नहीं निजवित्त के, स्वामी गौरववान॥१॥
सच्चा धन इस विश्व में, नर का ही उत्साह।
अस्थिर वैभव अन्य सब, बहते काल-प्रवाह॥२॥
साधन जिनके हाथ में, है अटूट उत्साह
क्या, निराश हों, धन्य वे, भरते दुःखद आह॥३॥
श्रम से भगे न दूर जो, देख विपुल आयास[१]
खोज सदन उस धन्य का करता भाग्य निवास॥४॥
तरुलक्ष्मी की साख ज्यों, देता नीर प्रवाह।
भाग्यश्री की सूचना, देता त्यों उत्साह॥५॥
लक्ष्य मदा ऊँचा रखो, यह ही चतुर सुनीति।
सिद्धि नहीं जो भी मिले, तो भी मलिन न कीर्ति॥६॥
हतोत्साह होता नहीं, हारचुका भी वीर।
पैर जमाता और भी, गज खा तीखे-तीर॥७॥
हो जावे उत्साह ही, जिसका क्रम से मन्द।
उस नर के क्या भाग्य में, वैभव का आनन्द॥८॥
सिंह देख गजराज का, जब मन ही मरजाय।
कौन काम के दन्त तब, और वृहत्तर-काय॥९॥
है अपार उत्साह ही, भू में शक्ति महान।
हैं पशु ही उसके बिना, आकृति में असमान॥१०॥


  1. क्लेश।