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परिच्छेद ४१
शिक्षा की उपेक्षा

जो पूरी शिक्षा बिना, भाषण दे चढ़ मञ्च।
पर विन चौपड़ खेल का, मानो रचे प्रपञ्च॥१॥
वक्ता की त्यों कीर्ति को, चाहे विद्याक्षीण।
युवकाकर्षणरागिणी, ज्यों नारी कुचहीन॥२॥
विबुधों में यदि धैर्य धर, रहे मूर्ख चुपचाप।
तो उसको भी यह जगत, गिनता बुध ही आप॥३॥
भले अशिक्षित दक्ष हो, करने में सब कार्य।
फिर भी उसकी राय का, मूल्य न आँकें आर्य॥४॥
जो समझे बुध आप को, विद्या से मन खींच
खुलकर लज्जित हो वही, बोल सभा के बीच॥५॥
एक अशिक्षित की दशा, ऊपर भूमि समान।
जीवित वह इसके सिवा, कह न सके जन आन[१]॥६॥
प्राज्ञों की धनहीनता, मन को नहीं सुहात।
मूर्खविभव उससे अधिक, अप्रिय लगता भ्रात॥७॥
सूक्ष्म तत्व जिसके नहीं, बनते प्रतिभागेह।
सजी धजी मृण्मूर्ति सम, उसकी सुन्दर देह॥८॥
विद्या बिना कुलीन भी, लघु ही होता भान।
और सुशिक्षित निम्न भी, लगता गौरववान॥९॥
पशुओं से जितना अधिक, उत्तम नर है तात।
बस उतना ही मूर्ख से, शिक्षित वर विख्यात॥


  1. अन्य।