पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/१८६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[१६१
 

 

परिच्छेद २६
निरामिष जीवन

१—भला उसके मन में दया कैसे आयेगी जो अपना मांस बढ़ाने के लिए दूसरो का मांस खाता है?

२—व्यर्थव्ययी के पास जैसे सम्पत्ति नहीं ठहरती, ठीक वैसे ही मांस खाने वाले के हृदय में दया नहीं रहती।

३—जो मनुष्य मांस चखता है उसका हृदय शस्त्रधारी मनुष्य के हृदय के समान शुभकर्म की ओर नहीं झुकता।

४—जीवों की हत्या करना निस्सन्देह क्रूरता है, पर उनका मांस खाना तो सर्वथा पाप है।

५—मांस न खाने में ही जीवन है। यदि तुम खाओगे तो नरक का द्वार तुम्हे बाहर निकल जाने देने के लिए कभी नहीं खुलेगा।

६—यदि लोग मांस खाने की इच्छा ही न करे तो जगत में उसे बेचने वाला कोई आदमी ही न रहेगा।

७—यदि मनुष्य दूसरे प्राणियो की पीड़ा और यन्त्रणा को एकबार समझ सके, तो फिर वह कभी मांसभक्षण की इच्छा ही न करेगा।

८—जो लोग माया और मूढ़ता के फन्दे से निकल गये है वे लाश को नहीं खाते।

९—प्राणियों की हिंसा व मांसभक्षण से विरक्त होना सैकड़ों यज्ञों में बलि व आहुति देने से बढ़ कर है।

१०—देखो, जो पुरुष हिंसा नहीं करता और मांस न खाने का व्रती है, सारा संसार हाथ जोड़कर उसका सम्मान करता है।