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परिच्छेद २१
पापकर्मों से भय

जिस अनीतिमय रीत को, पाप कहें जनवृन्द।
सज्जन उससे दूर ही, रहें निडर खलवृन्द॥१॥
'बढ़ै पाप से पाप ही' यह उक्ति ध्रुवसत्य।
पाप बड़ा है आग से, भीत रहो बुध नित्स॥२॥
कहते ऐसा प्राज्ञगण, बुद्धि उसी के पास।
वैरी की भी हानि को, जिसका चित्त उदास॥३॥
मत सोचो तुम भूलकर, पर का नाश कदैव।
कारण उसके नाश को, सोचे न्याय सदैव॥४॥
'निर्धन हूँ' ऐसा समझ, करो न कोई पाप।
कारण बढ़ती और भी, निर्धनता अघशाप॥५॥
विपदाओं के दुःख से, यदि चाहो निज प्राण।
हानि अन्य की छोड़कर, करो स्वपर कल्याण॥६॥
अन्य तरह के शत्रु से, बच सकता नर आप।
नाश बिना पर जीव का, पिण्ड न छोड़े पाप॥७॥
पाप फिरें पीछे लगे, छाया जैसे साथ।
सर्वनाश के अन्त में, करते जीव अनाथ॥८॥
जिसको प्यारी आत्मा, करे नहीं वह पाप।
जिसे न प्यारी आत्मा, वह ही करता पाप॥९॥
रक्षित वह है सर्वथा, विपदा उसकी अस्त।
पापहेतु छोड़े नहीं, जो नर मार्ग प्रशस्त॥१०॥