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परिच्छेद १३
संयम

संयम के माहात्म्य से, मिलता है सुरलोक।
और असंयम राजपथ, रौरव को बेरोक॥१॥
संयम की रक्षा करो, निधिसम ही धीमान।
कारण जीवन में नहीं, बढ़कर और निधान॥२॥
समझ बूझकर जो करे, इच्छाओं का रोध।
मेधादिक कल्याण वह, पाता बिना विरोध॥३॥
जो निष्कामी कार्य में, विचलित करे न भाव।
उसके मुख का सर्व पर, गिरि से अधिक प्रभाव॥४॥
वैसे तो सब में विनय, होती शोभावान|
पर पूरी खुलती तभी, विनयी यदि श्रीमान॥५॥
कूर्मअङ्ग-सम, इन्द्रियाँ, वश में पूर्ण-प्रकार।
तो समझो परलोक को, जोड़ा निधि भण्डार॥६॥
इन्द्रियगण में अन्य को, रोक भले मत रोक।
पर जिह्वा को रोक तू, जिससे मिले न शोक॥७॥
वाणी में यदि एक भी, पद है पीड़ाकार।
तो समझो बस नष्ट ही, पहिले के उपकार॥८॥
दग्धअङ्ग होते भले, पाकरके कुछ काल।
पर अच्छे होते नहीं, वचन घाव विकराल॥९॥
वशीपुरुष को देखलो, विद्या-बुद्धि-निधान।
दर्शन को उसके यहाँ, आते सब कल्याण॥१०॥