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रागता का व्याख्यान कर, पाँचवे पध में गुणगान करने से पापकर्मों का क्षय कहा गया है, छठे पद्यमें उनसे उपदिष्ट धर्म तथा उसके पालन का उपदेश दिया गया है। और सातवे में उपयुर्क्त देव की शरण में आने से ही मनुष्य को सुख शांति मिल सकती है ऐसा कहा है। जैन धर्म में सिद्ध परमेष्ठी के आठ गुण माने गये है, इसलिए सिद्धस्तुति करते हुए आठवें पद्य में उनके आठ गुणों का निर्देश किया गया है।

जैनधर्म मे पृथ्वी वातवलय से वेष्टित बतलाई गई है। कुरल में भी पच्चीसवे अध्याय के पांचवें पद्य में दया के प्रकरण में कहा गया है—'क्लेश दयालु पुरुष के लिए नहीं है, भरी पूरी वायु वेष्ठित पृथ्वी इस बात की साक्षी है।'

सत्य का लक्षण कुरलमें वही कहा गया है जो जैनधर्म को मान्य है—'ज्यों की त्यों बात कहना सत्य नहीं है किंतु समीचीन अर्थात् लोक हितकारी बात का कहना ही सत्य है, भले ही वह ज्यों त्यों न हो।'

नहीं किसी भी जीव को जिससे पीड़ा कार्य।
सत्य वचन उसको कहे, पूज्य ऋषीश्वर आर्य॥१॥

वैदिक पद्धति में जब वर्णव्यवस्था जन्ममूलक है तब जैन पद्धति में वह गुणमूलक है। कुरल में भी गुणमूलक वर्णव्यवस्था का वर्णन हैं—'साधु-प्रकृति-पुरुषों को ही ब्राह्मण कहना चाहिए, कारण वे ही लोग सब प्राणियों पर दया रखते है।'

वैदिक वर्णव्यवस्था में कृषि शूद्र का हो कर्म है, तब कुरल अपने कृषि अध्याय में उसे सबसे उत्तम आजीविका बताता है, क्योंकि अन्य लोग पराश्रित तथा परपिण्डोपजीवी है। जैन शास्त्रानुसार प्रत्येक वर्ण वाला व्यक्ति कृषि कर सकता है।

उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग।
और कमाई अन्य की, खाते बाकी लोग॥

जैन शास्त्रों में नरकों को 'विवर' अर्थात बिलरूप में तथा मोक्ष स्थान को स्वर्गलोक के ऊपर माना है। कुरल में ऐसा ही वर्णन है, जैसा कि उसके पद्यों के निम्न अनुवाद से प्रकट है—

जीवन में ही पूर्व से, कहे स्वंय अज्ञान।
अहो नरक का छुद्र बिल, मेरा भावी स्थान॥