पृष्ठ:कुमारसम्भवसार.djvu/४२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ३३ )

समझाने के लिए रूप उसने प्रकटाया;
आतुर रति के निकट वहाँ वह तत्क्षण आया।।
२०
रति ने उसको देख, अश्रु की धार बहाई;
घोड़ा भी, उर पीट, उरोजों को पहुँचाई।
निज-जन-सम्मुन दुःख बहुत ही बढ़ जाता है;
वह, कपाट से तोड़. निकल बाहर आता है।।
२१
बोली वह, इस भाँति, महा-शोकाकुल वानी,
हे वसन्त! यह देख मित्र की बची निशानी!
रज में परिणत हुआ पड़ा वह दिखलाता है;
पवन इधर से उधर उसे अब बिखराता है!
२२
हे मन्मथ! हे मदन! आय अब दर्शन दीजे;
उत्सुक यह ऋतुराज, अनुग्रह इस पर कीजे।
नारी में नर-प्रेम सर्वदा चल रहता है;
किन्तु मित्र में अचल,--यही सब जग कहता है।।
२३
चाप-रज्जु के लिये कमल के तन्तु मनोहर,
तथा शरों के लिए फूल अति कोमल देकर।
इस सहचर ने विश्व सुरासुर-पूरित सारा,
वशीभूत, सब भाँति, कर दिया नाथ! तुम्हारा
२४
गया सखा तव, दीप पवन से ज्यों जाता है;
बत्ती सी मैं रही, चित्त अति अकुलाता है।
पति-वध ही विधि ने न, किया मम वध भी उसने;
आश्रय-विटप-विहीन लता देखी है किसने?