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७०

नयन दाहिने के कोने में मुट्ठी रक्खे हुए कठोर,
कन्ध झुकाये हुए, वाम पद छोटा किये भूमि की ओर।
धनुष बनाये हुए चक्र सम, विशिख छोड़ते हुए विशाल,
मनसिज को इस विकट वेश में त्रिनयन ने देखा उस काल॥

७१

जिनका कोप विशेष बढ़ा था तपोभङ्ग होजाने से,
जिनका मुख दुर्दर्श हुआ था भृकुटी कुटिल चढ़ाने से।
उन हर के तृतीय लोचन से तत्क्षण ही अति विकराला,
अकस्मात् अग्निस्फुलिङ्ग की निकली दीप्तिमान ज्वाला॥

७२

"हा हा! प्रभो! क्रोध यह अपना करिए, करिए, शान्त"—
इस प्रकार का विनय व्योम में जब तक सब सुर करें नितान्त।
तब तक हर[१] के ट्टग से निकले हुए हुताशन ने सविशेष,
मन्मथ के मोहक शरीर को भस्मशेष कर दिया अशेष॥

७३

अति दारुण विपत्ति के कारण महामोह का हुआ विकाश,
उसने रति के इन्द्रियगण की नियत वृत्ति का किया विनाश।
प्रियतम पति की विषम दशा का क्षण भर उसको रहा न ज्ञान;
उस अबला पर हुआ, इसी मिष, मानो यह उपकार महान॥

७४

तरुवर के टुकड़े करता है भीषण बज्रपात जैसे,
तप के विघ्नरूप मनसिज का देह-भङ्ग कर के तैसे।


  1. भूख श्लोक में, यहाँ पर, कालिदास ने 'भव' शब्द का प्रयोग किया है। भव महादेव का नाम है; और भव, जन्म (उत्पत्ति) को भी कहते हैं। अतः, इस अवसर पर, हमारी समझ में, संहारवाची शङ्कर का दुसरा नाम 'हर' यदि आता तो अच्छा होता।अनुवादक