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३२

आममञ्जरी का आस्वादन कोकिल ने कर बारंबार,
अरुणकण्ड से किया शब्द जो महा मधुरता का आगार।
"हे मानिनी कामिनी! तुम सब अपना मान करो निःशेष"
इस प्रकार मन्मथ-महीप का हुआ वही आदेश विशेष॥

३३

जिनके अधर निरोग हो गये हिम पड़ना मिट जाने से,
जिनकी मुख-छवि पीत होगई कुंकुम के न लगाने से।
ऐसी किन्नर-कामिनियों के तन में स्वेदबिन्दु, सुन्दर,
रुचिर पत्र-रचना के ऊपर, शोभित हुए, प्रकट होकर॥

३४

शिव-आश्रम के आस पास थे जितने मुनिवर वनवासी,
असमय में ही देख आगमन ऋतुपति का मायाराशी।
सहसा अति गुरुतर विकार का, कई बार, खाकर झोंका,
किसी प्रकार उन्होंने अपना विचलित-चित्त-वेग रोका॥

३५

पुष्पशरासन पर चढ़ाय शर, उस प्रदेश में जब रतिनाथ,
पहुँचा, निज सहधर्म्मचारिणी रति को लेकर अपने साथ।
जितने थे स्थावर, जङ्गम, सब, आतुरता-वश बारंबार,
रति-सूचक-शृङ्गार-भावना करने लगे अनेक प्रकार॥

३६

फूलरूप एकही पात्र में भरा हुआ मीठा मकरन्द,
भ्रमरी के पीने के पीछे, पिया भ्रमरवर ने स्वच्छन्द।
छूने से जिस प्रिया मृगी ने सुखवश किये विलोचन बन्द;
एक सींग से उसे खुजाया कृष्णसार मृग ने सानन्द॥

३७

गजिनी ने मुख में रख कर जल पङ्कज-रजोवास वाला,
रस के वश होकर, फिर, उसका निज गज के मुख में डाला।