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(२०)

गुद्दे से लेकर, अशोक ने, तत्क्षण, महा-मनोहारी
कली नवल-पल्लव-युत सुन्दर धारण की प्यारी प्यारी॥

२७

कोमल पत्तों की बनाय, झट, पक्षपंक्ति लाली लाली,
आममञ्जरी के प्रस्तुत कर नये विशिख शोभाशाली।
शिल्पकार ऋतुपति ने उन पर मधुप मनोहर बिठलाये;
काम-नाम के अक्षर मानों काले काले दिखलाये॥

२८

रहती है यद्यपि कनेर में रुचिर रङ्ग की अधिकाई,
तदपि सुवासहीनता उसके मन को हुई दुःखदायी।
वही विश्वकर्ता करता है जो कुछ जी में आता है;
सम्पूर्णता गुणों की प्रायः कहीं नहीं प्रकटाता है॥

२९

बालचन्द सम जो टेढ़ी है; जिनका अब तक नहीं विकाश;
ऐसी अरुणवर्ण कलियों से अतिशय शोभित हुआ पलाश
मानों नव-वसन्त-नायक ने, प्रेम-विवश होकर, तत्काल,
वनस्थली को दिये नखों के क्षतरूपी आभरण रसाल॥

३०

नई वसन्ती ऋतु ने करके तिलक फूल को तिलक समान,
देकर मधुपमालिकारूपी मृदु कज्जल शोभा की खान।
जैसा अरुण रङ्ग होता है बालसूर्य में प्रातःकाल,
तद्वत् नवल-आम-पल्लव-मय अपने अधर बनाये लाल॥

३१

रुचिर चिरोंजी के फूलों की रज जो उड़ उड़ कर छाई;
हरिणों की आँखों में पड़ कर, पीड़ा उसने उपजाई।
इससे, वे अन्धे से होकर, मरमरात पत्तेवाले
कानन में, समीरसम्मुख, सब भागे मद से मतवाले॥