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भृकुटी कुटिल कटाक्ष-पात से उसे सुन्दरी सुरबाला,
बाँध डाल रक्खें; वैसे ही पड़ा रहे वह चिरकाला॥


नीति शुक्र से पढ़ा हुआ भी है यदि कोई अरि तेरा;
पहुँच अभी पास उसके झट दूत रागरूपी मेरा।
जल का ओघ नदी तट दोनों पीड़ित करता है जैसे:
धर्म्म, अर्थ--दोनों ही उसके पीड़न करूँ, कहो तैसे॥


महापतिव्रतधर्माधारिणी किस * नितम्बिनी ने अमरेश!
निज चारुता दिखा कर तेरे चञ्चल चित में किया प्रवेश
क्या तू यह इच्छा रखता है, कि वह तोड़ लज्जा का जाल
तेरे कण्ठदेश में डाले आकर अपने बाहु-मृणाल?


समझ सुरत-अपराध, कोप कर, किस तरूणी ने हे कामी!
तुझे तिरस्कृत किया, हुआ तब शीस यदपि तत्पदगामी
उग्र ताप से व्याकुल होकर वह मन में अति पछतावे,
पड़ो रहे पल्लवशय्या पर, किये हुए का फल पावे॥


मुदित हुजिए वीर! बज्र तब करे अखण्डित अब विश्राम;
बतलाइए, देवताओं का वैरी कौन पराक्रम-धाम।
मेरे शरसमूह से होकर विफल-बाहुबल कम्पित गात,
अधर कोप-विस्फुरित देख कर, डरे स्त्रियों से भी दिनरात

१०


हे सुरेश! तेरे प्रसाद से कुसुमायुध ही मैं, इस काल,

साथ एक ऋतुपति को लेकर, और प्रपञ्च यहीं सब डाल

  • नितम्बिनी——स्त्री।