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तृतीय सर्ग *

सारे देववन्द से खिंच कर देवराज के नयन हजार,

कामदेव पर बड़े चाव से आकर पड़े एक ही बार।
अपने सब सेवक-समूह पर स्वामी का आदर-सत्कार,

प्रायः घटा बढ़ा करता है सदा प्रयोजन के अनुसार॥

'सुख से बैठो यहाँ मनैभव ! इस प्रकार कर वचन-विकास,

अासन रुचिर दिया सुरपति ने अपने ही सिंहासन पास।
स्वामी की इस अनुकम्पा का अभिनन्दन कर शीश झुकाय,

रतिनायक,इस भाति,इन्द्र से बोला उसे अकेला पाय॥

सब के मन की बात जानने में अति निपुण!प्रभा! देवेश!

विश्व-बीच कर्तव्य कर्म तब क्या है, मुझे होय आदेश।
करके मेरा स्मरण,अनुग्रह दिखलाया है जो यह आज

उसे अधिक करिए आज्ञा से--यही चाहता हूँ सुरराज!

इन्द्रासन के इच्छुक किसने करके तप अतिशय भारी,

की उत्पन्न असूया तुझ में-मुझसे कहो कथा सारी।
मेरा यह अनिवार्य शरासन पाँच-कुसुमसायक-धारी,

अभी बना लेवे तत्क्षण ही उसको निज-आज्ञाकारी॥

जन्म-जरा-मरणादि दुःस्त्र से होकर दुखी कौन ज्ञानी
तव सम्मति-प्रतिकूल गया है मुक्तिमार्ग में अभिमानी?

  • इस सर्ग की कथा बहुत ही मनाहर है;इसलिए, इसका पूरा

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