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जाने गति उनकी विष्णु और हम भी न।
उनका मन तप में लीन, उमा के द्वाग,
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कर सकती केवल एक उमा ही धारण।
तत्सुत बन सेनाधीश बलिष्ठ तुम्हारा,
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सुर गये, उधर, सुरलोक, सहित देवेश।
सुरपति ने जाके वहाँ, बिदा कर सुरगण,
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तिकङ्कण-अङ्कित स्वकण्ठ में सन्जित कर, सौन्दर्य-निध
वसन्त-हाथ में देकर आममञ्जरी-रूपी बाण,
इति द्वितीय सर्ग।
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अयस्कांत--चुम्बक।
सार--लोहा।