अंदेशा अभी से होने लगा है। अगर बंगाल बंगाल के लिए, पंजाब पंजाब के लिए की हवा ने ज़ोर पकड़ा तो वह क़ौमियत की जो जन्नत गुलामी के पसीने और ज़िल्लत से बनी थी मादूम हो जायगी और हिन्दुस्तान फिर छोटे-छोटे राजों का समूह होकर रह जायगा और फिर क़यामत के पहले उसे पराधीनता की क़ैद से नजात न होगी। हमें अफ़सोस तो यह है कि इस क़िस्म की सदाएँ उन दिशाओं से आ रही हैं जहाँ से हमें एकता की दिल बढ़ानेवाली सदाओं की उम्मीद थी। डेढ़ सौ साल की गुलामी ने कुछ-कुछ हमारी आँखें खोलनी शुरू की थीं कि फिर वही प्रांतीयता की आवाज़ें पैदा होने लगीं। और इस नई व्यवस्था ने उन भेद-भावों के फलने-फूलने के लिए ज़मीन तैयार कर दी है। अगर 'प्राविंशल अटानोमी' ने यह सूरत अख़्तियार की तो वह हिन्दुस्तानी क़ौमियत की जवान मौत नहीं, बाल मृत्यु होगी। और वह तफ़रीक़ जाकर रुकेगी कहाँ? उसकी तो कोई इति ही नहीं। सूबा सूबे के लिए, ज़िला ज़िले के लिए, हिन्दू हिन्दू के लिए, मुसलिम मुसलिम के लिए, ब्राह्मण ब्राह्मण के लिए, वैश्य वैश्य के लिए, कपूर कपूर के लिए, सकसेना सकसेना के लिए, इतनी दीवारों और कोठरियों के अन्दर क़ौमियत कै दिन साँस ले सकेगी! हम देखते हैं कि ऐतिहासिक परम्परा प्रांतीयता की ओर है। आज जो अलग-अलग सूबे हैं किसी ज़माने में अलग-अलग राज थे, क़ुदरती हदें भी उन्हें दूसरे सूबों से अलग किये हुए हैं, और उनकी भाषा, साहित्य, संस्कृति सब एक हैं। लेकिन एकता के ये सारे साधन रहते हुए भी वह अपनी स्वाधीनता को क़ायम न रख सके इसका सबब यही तो है कि उन्होंने अपने को अपने क़िले में बन्द कर लिया और बाहर की दुनिया से कोई सम्बन्ध न रखा। अगर उसी अलहदगी की रीति से वह फिर काम लेंगे तो फिर शायद तारीख़ अपने को दोहराये। हमें तारीख़ से यही सबक़ न लेना चाहिये कि हम क्या थे। यह भी देखना चाहिये कि हम क्या हो सकते थे। अकसर हमें तारीख़ को भूल जाना पड़ता है। भूत हमारे भविष्य का रहबर नहीं हो सकता। जिन कुपथ्यों से हम बीमार हुए थे, क्या अच्छे हो
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