पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/८३

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अभी तक उन साहित्यों के द्वार हमारे लिए बन्द थे, क्योंकि हिन्दुस्तान की बारहों भाषाओं का ज्ञान विरले ही किसी को होगा। राष्ट्र प्राणियों के उस समूह को कहते हैं कि जिनकी एक विद्या, एक तहज़ीब हो, एक राजनैतिक संगठन हो, एक भाषा हो और एक साहित्य हो। हम और आप दिल से चाहते हैं कि हिन्दुस्तान सच्चे मानी में एक क़ौम बने। इसलिए हमारा कर्तव्य है कि भेद पैदा करनेवाले कारणों को मिटायें और मेल पैदा करनेवाले कारणों को संगठित करें। क़ौम की भावना यूरप में भी दो-ढाई सौ साल से ज्यादा पुरानी नहीं। हिन्दुस्तान में तो यह भावना अंग्रेजी राज के विस्तार के साथ ही आई है। इस ग़ुलामी का एक रोशन पहलू यही है कि उसने हममें क़ौमियत की भावना को जन्म दिया। इस ख़ुदादाद मौक़े से फ़ायदा उठाकर हमें क़ौमियत के अटूट रिश्ते में बँध जाना है। भाषा और साहित्य का भेद ही ख़ास तौर से हमें भिन्न-भिन्न प्रांतीय जत्थों में बाँटे हुए है। अगर हम इन अलग करनेवाली बाधा को तोड़ दें तो राष्ट्रीय संस्कृति की एक धारा बहने लगेगी जो क़ौमियत की सबसे मज़बूत भावना है। यही मक़सद सामने रखकर हमने 'हंस' नाम की एक मासिक पत्रिका निकालनी शुरू की है जिसमें हरेक भाषा के नये और पुराने साहित्य की अच्छी से अच्छी चीज़ें देने की कोशिश करते हैं। इसी मकसद को पूरा करने के लिए हमने एक भारतीय साहित्य परिषद् या हिन्दुस्तान की क़ौमी अदबी सभा की बुनियाद डालने की तजवीज़ की है, और परिषद् का पहला जलसा २३, २४[१] को नागपूर में महात्मा गांधी की सदारत में क़रार पाया है। हम कोशिश कर रहे हैं कि परिषद् में सभी सूबे के साहित्यकार आयें और आपस में ख़यालात का तबादला करके हम तजवीज़ की

ऐसी सूरत दें जिसमें वह अपना मक़सद पूरा कर सके। बाज़ सूबों में अभी से प्रांतीयता के जज़बात पैदा होने लगे हैं। 'सूबा सूबेवालों के लिए' की सदाएँ उठने लगी हैं। हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए की सदा इस प्रांतीयता की चीख-पुकार में कहीं सूख न जाय, इसका


  1. २३‘ २४ अप्रैल, १९३६।