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:: कुछ विचार ::
 


तो यकायक ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि को पीछे हटाकर हिन्दी कैसे सबके ऊपर ग़ालिब आई, यहाँ तक कि अब अवधी और भोजपुरी का तो साहित्य में कहीं व्यवहार नहीं है, हाँ ब्रजभाषा को अभी तक थोड़े-से लोग सीने से चिपटाये हुए हैं। हिन्दी को यह गौरव प्रदान करने का श्रेय मुसलमानों को है। मुसलमानों ही ने दिल्ली प्रांत की इस बोली को, जिसको उस वक्त तक भाषा का पद न मिला था, व्यवहार में लाकर उसे दरबार की भाषा बना दिया और दिल्ली के उमरा और सामंत जिन प्रांतों में गये, हिन्दी भाषा को साथ लेते गये। उन्हीं के साथ वह दक्खिन में पहुँची और उसका बचपन दक्खिन ही में गुज़रा। दिल्ली में बहुत दिनों तक अराजकता का जोर रहा, और भाषा को विकास का अवसर न मिला। और दक्खिन में वह पलती रही। गोल-कुंडा, बीजापूर, गुलबर्गा आदि के दरबारों में इसी भाषा में शेर-शायरी होती रही। मुसलमान बादशाह प्रायः साहित्यप्रेमी होते थे। बाबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगज़ेब, दाराशिकोह सभी साहित्य के मर्मज्ञ थे। सभी ने अपने-अपने रोज़नामचे लिखे हैं। अकबर ख़ुद शिक्षित न हो मगर साहित्य का रसिक था। दक्खिन के बादशाहों में अफ्सरों ने कविताएँ की और कवियों को आश्रय दिया। पहले तो उनकी भाषा कुछ अजीब, खिचड़ी-सी थी जिसमें हिन्दी, फ़ारसी सब कुछ भिला होता था। आपको शायद मालूम होगा कि हिन्दी की सबसे पहली रचना ख़ुसरो ने की है जो मुग़लों से भी पहले ख़िलजी राजकाल में हुए। ख़ुसरो की कविता का एक नमूना देखिये—

जब यार देखा नैन भर, दिल की गई चिन्ता उतर,
ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर।
जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया,
हक्का इलाही क्या किया, आँसू चले भरलाय कर॥
तूँ तो हमारा यार है, तुम पर हमारा प्यार है,
तुझ दोस्ती बिसियार है, यक शब मिलो तुभ आय कर।