भी ज़्यादा नहीं। एक दूसरे लेख की शैली का नमूना और लीजिये–
'अपने साथ रहनेवाले नागरिकों के साथ हमारा जो रोज़-रोज़ का सम्बन्ध होता है, उसमें क्या आप समझते हैं कि वस्तुतः न्यायकर्ता , जेल के अधिकारी और पुलीस के कारण ही समाज-विरोधी कार्य बढ़ने नहीं पाते? न्यायकर्ता तो सदा न ख़ूँख्वार बना रहता है, क्योंकि वह क़ानून का पागल है, अभियोग लगानेवाला, पुलीस को ख़बर देनेवाला, पुलीस का गुप्तचर, तथा इसी श्रेणी के और लोग जो अदालतों के इर्द गिर्द मँडराया करते हैं और किसी प्रकार अपना पेट पालते हैं, क्या यह लोग व्यापक रूप से समाज में दुर्नीति का प्रचार नहीं करते? मामलों-मुकदमों की रिपोर्ट पढ़िये, पर्दे के अन्दर नज़र डालिये, अपनी विश्लेषक बुद्धि को अदालतों के बाहरी भाग तक ही परिमित न रखकर भीतर ले जाइये, तब आपको जो कुछ मालूम होगा, उससे आपका सिर बिल्कुल भन्ना उठेगा'।
यहाँ अगर हम 'समाज-विरोधी' की जगह 'समाज को नुक़सान पहुँचानेवाले', 'अभियोग' की जगह 'जुर्म', 'गुप्तचर' की जगह 'मुख़बिर', श्रेणी' की जगह 'दर्जा', 'दुर्नीति' की जगह 'बुराई', 'विश्लेषक बुद्धि' की जगह 'परख', 'परिमित' की जगह 'बन्द' लिखें तो वह सरल और सुबोध हो जाती है और हम उसे हिन्दुस्तानी कह सकते हैं।
इस रूप का प्रचार कैसे हो?
इन उदाहरणों या मिसालों से ज़ाहिर है कि हिन्दी-कोष में उर्दू के और उर्दू-कोष में हिन्दी के शब्द बढ़ाने से काम चल सकता है। यह भी निवेदन कर देना चाहता हूँ कि थोड़े दिन पहले फ़ारसी और उर्दू के दरबारी भाषा होने के सबब से फ़ारसी के शब्द जितना रिवाज़ पा गये हैं, उतना संस्कृत के शब्द नहीं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण में जो कठिनाई होती है, इसको हिन्दी के विद्वानों ने पहले ही देख लिया और उन्होंने हज़ारों संस्कृत शब्दों को इस तरह बदल दिया कि वह आसानी में बोले जा सकें। ब्रजभाषा और अवधी में इसकी बहुत-सी