पृष्ठ:कुछ विचार - भाग १.djvu/१३०

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:: कुछ विचार ::
 

हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा की ज़रूरत पड़ गई है, जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाय, जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें, जिसे हिन्दुस्तान का प्रत्येक पढ़ा या बेपढ़ा आदमी उसी तरह समझे या बोले, जैसे हर एक अंग्रेज़ या जर्मन या फ्रांसीसी फ्रेंच या जर्मन या अंग्रेज़ी भाषा बोलता और समझता है। हम सूबे की भाषाओं के विरोधी नहीं हैं। आप उनमें जितनी उन्नति कर सकें, करें; लेकिन एक क़ौमी भाषा का मरकज़ी सहारा लिये बगैर आपके राष्ट्र की जड़ कभी मज़बूत नहीं हो सकती। हमें रञ्ज के साथ कहना पड़ता है कि अब तक हमने क़ौमी भाषा की ओर जितना ध्यान देना चाहिये, उतना नहीं दिया है। हमारे पूज्य नेता सब-के-सब ऐसी ज़ुबान की ज़रूरत को मानते हैं। लेकिन, अभी तक उनका ध्यान ख़ास तौर पर इस विषय की ओर नहीं आया। हम ऐसा राष्ट्र बनाने का स्वप्न देख रहे हैं, जिसकी बुनियाद इस वक्त सिर्फ़ अंग्रेजी हुकूमत है। इस बालू की बुनियाद पर हमारी क़ौमियत का मीनार खड़ा किया जा रहा है। और अगर हमने क़ौमियत की सबसे बड़ी शर्त, यानी क़ौमी ज़ुबान की तरफ़ से लापरवाही को, तो इसका अर्थ यह होगा कि आपकी क़ौम को ज़िन्दा रखने के लिए अंग्रेजी की मरकज़ी हुकूमत का कायम रहना लाज़िम होगा; वरना कोई मिलानेवाली ताक़त न होने के कारण हम सब बिखर जायँगे और प्रान्तीयता जोर पकड़कर राष्ट्र का गला घोंट देगी, और जिस बिखरी हुई दशा में हम अंग्रेज़ों के आने के पहले थे, उसी में फिर लौट जायँगे।

इस उदासीनता का कारण

इस लापरवाही का ख़ास सबब है—अंग्रेज़ी ज़ुबान का बढ़ता हुआ प्रचार और हममें आत्म-सम्मान की वह कमी, जो गुलामी की शर्म को नहीं महसूस करती। यह दुरुस्त है कि आज भारत की दफ़्तरी जबान अंग्रेज़ी है और भारत की जनता पर शासन करने में अंग्रेज़ों का हाथ