ख़र्च न होगी, आपकी इमारत न बनेगी। घिरोंदा शायद बन जाय, जो एक हवा के झोंके में उड़ जायगा। दरअसल अभी हमने जो कुछ किया है, वह नहीं के बराबर है। एक अच्छा-सा राष्ट्र-भाषा का विद्यालय तो हम खोल नहीं सके। हर साल सैकड़ों स्कूल खुलते हैं, जिनकी मुल्क को बिलकुल ज़रूरत नहीं। 'उसमानिया विश्व-विद्यालय' काम की चीज़ है, अगर वह उर्दू और हिन्दी के बीच की खाई को और चौड़ी न बना दे। फिर भी मैं उसे और विश्व विद्यालयों पर तरज़ीह देता हूँ। कम-से-कम अंग्रेज़ी की गुलामी से तो उसने अपने को मुक्त कर लिया। और हमारे जितने विद्यालय हैं सभी गुलामी के कारखाने हैं, जो लड़कों को स्वार्थ का ज़रूरतों का, नुमाइश का, अकर्मण्यता का गुलाम बनाकर छोड़ देते हैं और लुत्फ़ यह है, कि यह तालीम भी मोतियों के मोलबिक रही है। इस शिक्षा की बाज़ारी कीमत शून्य के बराबर है, फिर भी हम क्यों भेड़ों की तरह उसके पीछे दौड़े चले जा रहे हैं? अंग्रेज़ी शिक्षा हम शिष्टता के लिए नहीं ग्रहण करते। इसका उद्देश्य उदर है। शिष्टता के लिए हमें अंग्रेज़ी के सामने हाथ फैलाने की ज़रूरत नहीं। शिष्टता हमारी मीरास है, शिष्टता हमारी घुट्टी में पड़ी है। हम तो कहेंगे, हम ज़रूरत से ज्यादा शिष्ट हैं। हमारी शिष्टता दुर्बलता की हद तक पहुँच गई है। पच्छिमी शिष्टता में जो कुछ है, वह उद्योग और पुरुषार्थ है। हमने यह चीजें तो उसमें से छाँटी नहीं। छाँटा क्या, लोफरपन, अहंकार, स्वार्थान्धता, बेशर्मी, शराब और दुर्व्यसन। एक मूर्ख किसान के पास जाइये। कितना नम्र, कितना मेहमानवाज, कितना ईमानदार, कितना विश्वासी। उसी का भाई टामी है, पच्छिमी शिष्टता सच्चा नमूना, शराबी, लोफर, गुण्डा, अक्खड़, हया से खाली। शिष्टता सीखने के लिए हमें अंग्रेजी की गुलामी करने की जरूरत नहीं। हमारे पास ऐसे विद्यालय होने चाहिये, जहाँ ऊँची-से-ऊँची शिक्षा राष्ट्र-भाषा में सुगमता से मिल सके। इस वक्त अगर ज्यादा नहीं तो एक तो ऐसा विद्यालय किसी केन्द्र-स्थान में होना ही चाहिये; मगर हम आज भी वही भेड़-चाल चले जा रहे हैं, वही
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