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कुँवर उदयभान चरित।


जाना भला लगगया तो रानी केतकी की बास सूंघने लगी और अपनी आंखों को ऐसा कर लिया जैस कोई ऊंघने लगता है सिर से लगा पांव तक जब वारी फेरी होके तळुवे सहलाने लगी रानी केतको झटसे धीमी सीहँसके लचक साथ ले उठी मदनवान बोली मेरे हाथ के ठोके से वहीं पांव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों की ढूंढाढूंढ में पड़गया था ऐसी दुखती चुटकी की चोट से मसोसकर रानी केतकी ने कहा कांटा अड़ा तो अड़ा और छाला पड़ा तो पड़ा पर निगोडी तू क्यों मेरा पँछाला हुई।

सराहना रानी केतकी के जोबनका।

रानी केतकी का भला लगना लिखने पढ़ने से बाहर है वह दोनों भवोंकी खिचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रुँधाहट और हँसी की लगावट दंतडियों में मिसियों की उदाहट और इतनी सी रुकावट से नाक और तेवरी चढ़ालेना और सहेलियों को गालियां देना और चल निकलना और हिरनों के रूप से करछालें मार परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता।

सराहना कुँवरजी के ज्जोबनका।

कुँवर उदयभान के अच्छेपने में कुछ चल निकलना किसी से हो सके हायरे उनके उभारके दिनों का सुहानापन और चाल ढाल का अच्छन्न प्रच्छन्न उठती हुईं कोंपलकी फवन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के हरे भरे पहाड़ोंकी गोद सूरज की किरन निकल आती है यही रूप था उनकी भीगति मसोंसे रस का टपका