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कुँवर उदयभान चरित।

कबित्त।

जब छाँड़ करील की कुंजन कों हरि द्वारकाजीवमां जाय बसे।
कुलधूत के धाम बनाय घने महाराजन के महराज भये॥
तज मोर मुकुट अरु कामरिया कछु औरहि नाते जोड़ लये।
धरे रूप नये किये नेह नये और गइयां चरायेबो भूलगये॥

अच्छापना घाटों का।

जितने घाट दोनों राज की नदियों में थे कच्चे चांदी के थक्के से होकर लोगों को हक्का बक्का कर रहे थे निबाड़े भौलिये बजरे चलके मोरपंखी सोनामुखी श्यामसुन्दर रामसुन्दर और जितनी ढब की नावें थीं सुथरे रूप से सजी सजाई कसी कसाई सौ सौ लचके खाती आती जाती लहराती पड़ी फिरती थीं उन सब पर भी गवैये कंचनियां रामजनियां डोमनियां खचाखच भरी अपने अपने करतब में नाचती गाती बजाती कूदती फांदती धूमें मचाती अंगड़ाती जंभाती और ढुवी पडती थीं और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने रूपे के पत्रों से मढ़ी हुई और असवारी से ढंपी हुई न हो और बहुतसी नावों पर हिंडोले भी उसी ढब के उन पर गायनें बैठी झूलती हुई सोल्हे किदारे बागेसरी कान्हडे में गा रही थीं दलबादल ऐसे नवाड़ों के सब झीलों में भी छारहे थे॥

आ पहुंचना कुँवर उदयभान का ब्याहने के ठाठ के साथ दुल्हन की डेवढी पर।

उस धूम धाम के साथ कुंवर उदयभान सिहरा बांधे जब दुल्हन के घर तलक आपहुँचा और जो रीतें उनके घराने में होती चली