पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०
कुँवर उदयभान चरित।


तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी से आंखें अपनी मली और मालन को एक थाल भरके मोती देकर उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँहकी पीकसे यह लिखा “ऐ मेरे जी के गाहक जो तू मुझे बोटी २ कर चील कउवे को देडाले तो भी मेरी आंखों को चैन और कलेजे में सुख होवे पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं। डौल से बेटा बेटी के बाहर है। जी तुझसे प्यारा नहीं एक तो क्या जो करोर जी जाते हैं पर भागने की बात कोई मैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी पीक भरी जो कुँवर तक जा पहुँचती है उस पर कई सोने के थाल हीरे मोती पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है और जितनी उसकी बेकली थी चौगुनी होजाती है और उस चिट्ठी को अपने गोरे दण्ड पर बांध लेता है।।


आना जोगी महेन्दरगिर का कैलास परवत से और हिरन हिरनी कर डालना कुँवर उदयभान और उसके मा बाप का।

जगतपरकास अपने गुरु को जो कैलास पहाड़ पर रहता था यों लिख भेजता है "कुछ हमारी सहाय कीजिये महा कठिन हम बिपता मारों को पड़ी है राजा सूरजभान को अब यहां तक बावभक ने लिया है जो उन्हों ने हमसे महाराजों से नाते का डौल किया है"। कैलास पहाड़ एक डाल चांदी का है। उस पर राजा जगतपरकास का गुरू जिसको इन्द्रलोक के लोग सब महेन्दरगिर कहते थे ध्यान ज्ञान में कोई नब्बे लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात रहा करता था। सोना रूपा तांबे रांगे का बनाना तो क्या और गुटका