पृष्ठ:कुँवर उदयभान चरित.djvu/१७

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कुँवर उदयभान चरित।


ऊंगा इसीलिये मुखबात होकर मैंने कुछ न कहा और यहलिखभेजा 'अब जो मेरा जी नाक में आगया और किसी ढब न रहागया और आप ने मुझे सौ २ रूपसे खोला और बहुतसा टटोला तबतो लाज छोड़के हाथ जोडंके मुंहको फोड़के घिघियाके यह लिखताहूंजगमें चाहके हाथों किसी को सुख नहीं है भला वह कौन है जिसको दुख नहीं। वह उस दिन जो मैं हरयाली देखनेको गया था वहां जो मेरे साम्हने एक हिरनी कनौटियां उठाये हुए होली थी उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका जबतक उजाला रहा उसीकी धुनमें चलागया जब अंधेरा होगया और सूरज डूबा तब जी मेरा बहुत उदासहुआ अमरइयां ताकके मैं उनमें गया तो उन अमरइयोंका पत्ता २ मेरे जीका गाहक हुआ। वहांका यह सुफल है कुछ रण्डियां झूला झूल रही थीं उन सबकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराजा जगतपरकासकी बेटी हैं उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अगूठी उन्होंने लेली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अंगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखेहुएके साथ पहुंचती है आप देखलीजिये और जिसमें बेटेका जी रहजाय वह कीजिये" महाराज और महारानी उस बेटेके लिखेहुए पर सोनेके पानीसे यों लिखते हैं "हम दोनोंने उस अंगूठी और लिखौटको अपने आंखोंसे मला अब तुम अपने जीमें कछ कुट्टो मत जो रानी केतकीके मा बाप तुम्हारी बात मानते हैं तो हमारे समधी और समधन हैं दोनों राज एक होजावें और जो कुछ नाहनूहकी ठहरेगी तो जिस डौलसे बन आवेगा ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिळावेंगे आजसे उदास मत रहाकरो खेलो कूदो बोलो चालो आनन्दें करो। हम अच्छी घड़ीशुभ महूरत शोचके तुम्हारी सुसरालमें किसी बाम्हनको भेजते हैं जो बात चितचाही ठीक करलावे' बाम्हन जो शुभघड़ी देखके हडबडीसे गया