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कुँवर उदयभान चरित।


और कूद फांद और लपट झपट दिखाऊं जो देखतेही आपके ध्यानका घोड़ा जो बिजलीसे भी बहुत चंचल उछलाहटमें हिरनोंके रूपमें अपनी चौकड़ी भूळजाय॥

चौतुका॥

घोड़े पर अपने चढ़के आताहूं मैं। करतब जो हैं सो सब हिखाताहूं मैं। उस चाहनेवालेने जो चाहा तो अभी। कहता जो कुछहूं कर दिखाता हूं मैं।।

अब आप कान रखके सन्मुख होके टुक इधर देखिये किस ढबसे बढ़ चलताहूं और अपने इन फूलकी पँखड़ी जैसे होठोंसे किस किस रूपसे फूल उगलता हूं।



कहानी का उभार और बोल चालकी दुल्हन का सिङ्गार॥

किसी देसमें किसी राजाके घर एक बेटा था उसे उसके मा बाप और सब घरके लोग कुँवर उदयभान कहके पुकारते थे। सचमुच उसके जोबनकी जोतमें सूरजकी एक सूत आमिली थी उसका अच्छापन और भला लगना कछ ऐसा न था जो किसीके लिखने और कहनेमें आसके पन्दरह बरस भरके सोलहवें में पांव रक्खा था कछ योहीसी उसकी मसें भीगती चळी थीं अकड़ मकड़ उसमें बहुतसी समारही थी किसीको कछ न समझता था पर किसी बातके सोचका घरघाट पाया न था और चाव की नदी का पाट उसने देखा न था एक दिन हरियाली देखनेको अपने घोड़े पर चढ़के अठखेलपन और अल्हड़पन के साथ देखता भालता चला जाता था इतनेमें एक हिरनी जो उसके