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कुँवर उदयभान चरित।


उसकी सुरत-मुझे लगरही है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता और जितने उनके लड़के वाले हैं उन्ही के यहां परचाव है ओर कोई-हो। कुछ मेरे जी को नहीं भाता जीते मरते उन्ही सबों का आस्रा और उन के घराने का रक्खताहूं तीसों घड़ी।

डौल डाल एक अनोखी बात का॥

एक दिन बैठे२ यह बात अपने ध्यानमें चढ़आई कि कोई कहानी ऐसी कहिये जिसमें हिन्दवी की उचट और किसी बोलसे निपट न मिले तब जाके मेरा जी फूलकी कलीके रूप खिले। बाहरकी बोली और गँवारी कुछ उसके बीचमें न हो। अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे पुराने धुराने बूढ़े घाग यह खटराग लाये सिर हिलाकर मुँह ठठिया कर नाक भौं चढ़ाकर आंखें पथराकर लगे कहने यह बात होती दिखाई नहीं देती हिन्दवीपनभी न निकले, और भाखापनभी न घुसजाय, जैसे भले लोग अच्छोंसे अच्छ आपुसमें बोळते चालते हैं ज्यों का त्यों वही डौल रहे औ छांह किसीकी न पड़े यह नहीं होनेका मैंने इनकी ठण्डी सांसकी फांसका टहोका खाकर झुंझळाकर कहा मैं कछ ऐसा अनोखा बड़बोला नहीं जो राईको परबत कर दिखाऊं और झूठ सच बोलके उँगलियां नचाऊं और बेसुरी बेठिकानेकी उलझी सुलझी बातें सुझाऊं जो मुझसे न होसकता तो भला यह बात मुँहसे क्यों निकालता जिस ढबसे होता इस बखेड़ेको टालता॥

इस कहानी का कहनेवाला यहां आपको जताता है और जैसा कछ लोग उसे पुकारते हैं कह सुनाता है दहना हाथ मुंहपर फेरकर आप को जताता हूं जो मेरे दाताने चाहा तो वह तावभाव और आव जाव