पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/९४

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८ सन् १९३६ ई० की गर्मियों की बात थी। लखनऊ कांग्रेस से लौटकर मैं मुगेर जिले के सिमरी खतियारपुर में मीटिंग करने गया। उसके पहले एक बार भूकम्प के बाद वहाँ गया था। सैलाब बड़े जोरों का था । वहाँ तो बाढ़ आती है कोशी की कृपा से और यह नदी ऐसी भयंकर है कि जून में ही तूफान मचाती है। उसने उस इलाके को उजाड़ बना दिया है। पहली यात्रा में बाढ़ का प्रकोप और लोगों को भयंकर दरिद्रता देख के मैं दंग था । मेरा दिल रोया। मेरे कलेजे में वह बात धंस गई। वहाँ के लोगों और कार्य-कर्ताओं से जो कुछ मैंने सुना उससे तय कर लिया कि दूसरी बार इस इलाके में घूमना होगा । तभी अपनी अाँखों असली हालत देख सकँगा। इसीलिये बरसात पाने के बहुत पहले सन् १६३६ ई० की मई में ही, जहाँ तक याद है, मैं वहाँ गया । इस बार खास बखतियारपुर के अलावे धेनुपुरा, केवग श्रादि में भी मीटिंगों का प्रबन्ध था । मगर अासानी से उन जगहों में पहुँच न सकते थे । कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी और सभी जगह पानी की पुकार थी। मगर उस इलाके में बिना नाव के घूमना असंभव था । कोसी माई की कृपा से सारी जमीनें पानी के भीतर चली गई है । जिधर देखिये उधर ही सिर्फ जल नजर आता था। समुद्र में बने टापुओं की ही तरह गाँव नजर अाते थे । गाँव के किनारे थोड़ी बहुत जमीन नजर आती थी, जहाँ थोड़ी सी खेती हो सकती थी। बाकी तो निरा जल ही था। लोग मछलियों और जल-जन्तुओं को खा के हो ज्यादातर गुजर करते हैं । अन तो उन्हें नाम मात्र को ही कभी कभी मिल जाता है, सो भी केवल कदन्न, जिसे जमींदारों के कुत्ते ( घना भी पसन्द न करेंगे, खाना तो दूर रहा । उस इलाके में कुछी दूर बैलगाड़ी पर चल के गकी