तो वहाँ भी उनने वह प्रस्ताव पास कराना चाहा था । मगर हम सबने जिनमें सोशलिस्ट नेता भी शामिल थे--उसका विरोध किया था। 'फलतः वह गिर गया। उनके प्रस्ताव की खूबी यह थी कि मुआविजा (मूल्य) देकर ही जमींदारी मिटाने की बात उसमें थी।
टेण्डन जा भी इस बात के साक्षी हैं कि मैंने दूसरे दिन सम्मेलन में जो भाषण दिया था उसमें स्पष्ट कह दिया था कि जहाँ तक बिहार प्रान्तीय किसान सभा का ताल्लुक है, उसने जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव अभी तक नहीं माना है; क्योंकि इसमें अभी उसे हानि नजर आती है। मगर जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है, मैं उसके मिटाने का पूर्ण पक्ष- पाती हूँ। लेकिन मूल्य देकर नहीं किन्तु योंही छीन कर । यही हमारे -सामने संबसे बड़ी दिक्कत है इसके सम्बन्ध में । टण्डन जो को इस बात से आश्चर्य भो हुआ था कि छीनने के पक्ष में तो हैं | मगर मुआविजा देके खत्म करने के पक्ष में नहीं।
एक बात और । सन् १९३४ ई. के आखिर में सिलौत (मनियारी- मुजफ्फरपुर) में जो किसान कान्फ्रेंस हुई थी उसमें कहा जाता है, जमी- दारी मिटाने का प्रस्ताव एक किसान लीडर ने, जो अपने को इस बात के लिये मसीहा घोत्रित करते हैं .पेश किया था। मैं भी वहाँ मौजूद था। प्रस्ताव का वह अंश यों था कि किसान और सरकार के बीच में कोई शोषक वर्ग न रहे इस सिद्धान्त को प्रान्तीय किसान सभा स्वीकार करे । यहाँ विचारना है कि टण्डन जी वाले प्रस्ताव से इसमें विलक्षणता क्या है ? मुश्राविजा की बात पर यह चुर है । इसलिये ज्यादे से ज्यादा यही कहा जाता है कि गोल-मोल बात ही इसमें कही गई है, जब कि टण्डन जी ने त्यष्ट कह दिया था। मगर असल बात तो यह है कि जमादारी का नाम इसमें है नहीं । यह भी खूबी ही है। शोषक कहने से जमींदार भी पा जाते हैं, मगर सष्ट नहीं । यहाँ भी गोल बात ही है। फलतः गान्धी जो के- ट्रली वाले सिद्धान्त की भी इसमें गुंजाइश है। क्योंकि ट्रली होने पर तो जमींदार शोषक रहेगा नहीं। फिर जमींदारी मिटाने का क्श सवाल १ यही