पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/६२

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तो काम कर रही थी ही नहीं। वैधानिक ढंग से जोर डालकर किसानों का कुछ भला. करवाने और उनकी तकलीफें मिटवाने का खयाल ही इसके पीछे था। अन्यथा वर्ग सामञ्जस्य नहीं रह जाता। सोचा गया था कि जो ही वोट माँगने आयेगा उसे ही विवश किया जायगा कि किसानों के लिये कुछ करने का स्पष्ट वचन दे।

पश्चिम पटना में भरतपुरा, धरहरा आदि की पुरानी जमींदारियाँ हैं। उस समय उनका किसानों पर होने वाला जुल्म बिहार प्रान्त में अपना सानी शायद ही रखता हो। किसान पशु से भी बदतर बना दिये गये थे और छोटी-बड़ी कही जाने वाली जातियों के किसान एक ही लाठी से हाँके जाते थे। इस दृष्टि से वहाँ पूरा साम्यवाद था । यद्यपि उनके जुल्मों की पूरी जानकारी हमें उस समय न थी; वह तो पीछे चलकर हुई। उस समय विशेष जानने की मनोवृत्ति थी भी नहीं। फिर भी वे इतने ज्यादा, ज्वलंत और साफ थे कि छन-छन के कुछ न कुछ हमारे पास भी पहुँच ही. जाते थे। हमें यह भी मालूम हुआ था कि सन् १६२१ ई० के असहयोग युग में पटने के नामधारी नेता उन जमींदारियों में सफल मीटिंग एक भी न.कर सके थे। जमींदारों के इशारे से उन पर गोबर ग्रादि गन्दी चीजें तक फेंकी गई। सभा में लाठी के वल से किसान पाने से रोक दिये गये । वे इतने पस्त थे कि जमींदार का नाम सुनते ही सपक जाते थे। हमने सोचा, एक न एक दिन यह जुल्म दोनों में भिड़न्त करायेगा और इस प्रकार के गृह-कलह से आजादी की लड़ाई कमजोर हो जायगी। फलतः आन्दोलन के दवाव से जुल्म कम करवाने और इस तरह गृह- कलह रोकने की बात हमें सूमी । धरहरा के ही एक जमींदार हाल में ही कौंसिल में चुने गये थे। उनका काफी दवदवा था । हमने सोचा कि संगठित रूप से काम करने पर वोट के खयाल से वे दवेंगे और काम हो जायगा। बात कुछ थी भी ऐसी ही । वे जमींदार साहब इस सभा से वेहद्द चौके और इसके खिलाफ उनने प्रचार-कोशिश भी की। शोषक तो खटमल की तरह काफी काइयों होते हैं । इसी से वे सजग थे। हमें भी