पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/६१

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असल में सन् १६२७ ई. के आखिरी दिनों में पहलें पहल किसान- सभा का आयोजन और श्रीगणेश होने पर और तत्सम्बन्धी कितनी ही मीटिंगें करने पर भी जब सन् १६२८ ई० के ४ मार्च को नियमित रूप से किसान-सभा बनाई गई तो उसकी नियमावली में एक यह भी धारा जुटी कि "जिन लोगों ने अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कामों से अपने को किसान-हित का शत्रु सिद्ध कर दिया है वे इस सभा के सदस्य नहीं हो सकते।" एक अोर तो मेल-मिलार और सामञ्जस्य का खयाल और दूसरी ओर किसान-सभा की ऐसी गढ़बन्दी कि किसानों में भी वही उसके मेम्बर हो जो असली तौर पर किसान-हित के शत्रु साबित न हों । यह एक अजीब बात थी। आखिर ऐसे लोग किसान-सभा में आके क्या करते ? जब जमींदारों से कोई युद्ध करना न था तब इतनी चौकसी का मतलब क्या ? ज़मीदारों के खुफ़िया और 'फिफ्थकौलम' उसमें रहके भी क्या बिगाड़ डालते ? खूबी तो यह कि शुरू वाली सभा में जो यह बात तय पाई वह ठेठ बिहार प्रान्तीय किसान-सभा तथा पाल-इंडिया किसान-सभा को नियमावली में भी जा घुसी । मेरे दिमाग में वह बात जमी तो थी ही। फलतः सर्वत्र मैं उसकी जरूरत सुझाता गया। इस प्रकार हम अनजान में ही हजार न चाहने पर भी, या तो वर्ग संवर्ष की तैयारी शुरू से ही करते थे या उस ओर कम से कम अन्तदृष्टि से देख तो रहे थे ही, ऐसा जान पड़ता है।

जो पहली सभा बनी वह प्रान्त भर की नहीं ही थी। पटना जिले भर की भी न थी। उसका सूत्रपात बिहटा-अाश्रम में ही हुया था और यह विटा पटना जिले के पश्चिमी हिस्से के प्रायः किनारे पर ही है । वहाँ से तोन मील पच्छिम के बाद ही शाहाबाद जिला शुरू हो जाता है । उस समय प्रान्तीय कौंसिल के लिये दो मेम्बर चुने तो जा थे-एक पूर्वा भाग से और दूसरा पश्चिमी से । इसी चुनाव के खयाल से पटना जिला दो हिस्सों में बँटा था और यह सभा पश्चिमी भाग को ही थी। इसीलिये उसे रश्चिम पटना किसान-सभा नाम दिया गया था। कोई क्रांतिकारी भावना