सूचना थी भविष्य के लिये और इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि ऐसे लोगों से किसानों का हित नहीं हो सकता-फलतः उनसे एक न एक दिन किनाराकशी करनी ही होगी। यह बात कुछ अँचती-सी है।
उस समय एक और बात भी थी, जो ऊपर से ऐसी ही वेढंगी लगती है। आखिर किसान-सभा भी तो राजनीतिक वस्तु ही है अाज तो यह स्पष्ट हो गया है। यह तो सभी मानते हैं, फिर राजनीति का निचोड़ है रोटी, और उसी सवाल को किसान-सभा के द्वारा हल करना है। फिर राजनीति से होने वाला वैराग्य, जिसके भीतर कम से कम १६३२-३३ में किसान- सभा के प्रति अरुचि भी शामिल है । मुझे उस सभा में पुनरपि कूदने से क्यों न रोक सका जो कि कांग्रेस से रोके रहा, यह समझ में नहीं पाता। किसान-सभा की राजनीति निरीली ही होगी, वह अर्थ नीति (रोटी) मूलक ही होगी, शायद वह इस बात की सूचना रही हो । राजनीति हमारा साधन भले ही, मगर साध्यं तो रोटी ही है, यही दृष्टि संभवतः भीतर ही भीतर, अप्रकट रूप से काम करती थी, जो पीछे साफ़ हुई । लेकिन इतने से उस समय की परिस्थिति की बाहरी पेचीदगी खत्म तो हो जाती नहीं। वह तो साफ ही नजर आती है। मेरी श्रान्तरिक भावना किसानों के रंग में रँगी थी, इतना तो फिर भी स्पष्ट होई जाता है ।
लेकिन गांधीवाद के वर्ग सामञ्जस्य (Class-collaboration) का किसान-सभा से क्या ताल्लुक, यह प्रश्न तो बना ही है । मैं तो उन दिनों पूरा-पूरा गांधीवादी था । राजनीति को धर्म के रूप में ही देखता था। यद्यपि इधर कई साल के अनुभवों ने बार-बार बताया है कि राजनीति पर धर्म का रंग चढ़ाना असंभव है, वेकार है, खतरनाक है इसीलिये विराग भी हुा । फिर भी धुन वही थी और धर्ग में तो वर्ग सामञ्जत्ल हुई । वहाँ वर्ग संघर्ष (Class-struggle) की गुंजाइश कहाँ १ फलतः किसान-सभा भी उसी दृष्टिकोण को लेकर बनी। लेकिन उसमें भी एक विचित्रता थी जो भविष्य की सूचना देती थी। गोया उस ओर कोई इशारा था।