फिर गांधीवादी सभा की कौन कहे ? फिर भी किसान-सभा का सूत्र- पात हुआ।
ठीक कुछ ऐसी ही बात सन् १९३२-३३ में भी हुई । उस समय. भी मैं, सन् १९३० ई. की लड़ाई के बाद, कांग्रेस से विरागी था; राजनीति से अलग था, किसान-सभा से सम्बन्ध रखता न था। इस बार के विराग का कारण भी कुछ अंजीव था। मैंने सन् १६२२ ई० और १९३० में भी जेलों में जाने पर देखा था कि जो लोग गांधी जी के नाम पर ही जेल में गये हैं, वही उनकी सभी बातें एक-एक करके ठुकराते हैं और किंसी की भी सुनते नहीं । इससे मुझे बेहद्द तकलीफ हुई, मैंने सोचा कि जहाँ कोई व्यवस्था और नियम-पालन नहीं, अनुशासन नहीं, "डिसिप्लीन' नहीं, वह संस्था बहुत ही खतरनाक है । इसीलिये विरागी बन गया और १६३२ की लड़ाई से अलग ही रहा । मगर “ठीक उसी समय, हजार अनिच्छा के होते हुए भी, जबर्दस्ती किसान-सभा में खिंच ही तो गया। जहाँ सन् १६२७ ई० किसान-सभा के जन्म का समय था, तहाँ सन् १९३३ ई० उसके पुनर्जन्म का। क्योंकि दान के दो-तीन वर्षों में वह मरी पड़ी थी।
इस प्रकार जब देखता हूँ तो राजनीति के विराग के ही समय में किसान-सभा में खिंच गया नजर आता हूँ। यह भी एक अजीब-सी बात है कि राजनीति का वैराग्य किसान-सभा से विरागी न बना सका। दोनों वार के वैराग्य के भीतर प्रायः एक ही बात थी भी, और वह यह कि जो लोग कांग्रेस और गांधी जी को धोखा दे सकते हैं, भुलावे में डाल सकते हैं, वह जनता के साथ क्या न करेंगे । फलतः उनसे मेरा साथ, मेरा सहयोग नहीं हो सकता है। फिर भी किसान-सभा में वही पाये और रहे। लेकिन सकी कोशिश मैंने उस समय की ही नहीं कि वे लोग उसमें याने न पायें। मुझे आज यह पहेली सी मालूम हो रही है कि मैंने ऐसा क्यों न किया। इसीसे तो कहता हूँ कि किस प्रेरणा ने मुझे उसमें घसीटा यह स्पष्ट दीखता नहीं। यह कहा जा सकता है कि यह वैराग्य शायद अशात