तलवार उसकी पूर्ति कभी · कर नहीं सकती। तब तो कहना ही होगा कि कांग्रेस के नेता अपना हृदय-मन्थन करें और पता लगायें कि उनकी तपस्या एवं कांग्रेस के कार्यक्रम में कौन सी बड़ी खामी है, जिससे यह खतरा बना है कि . लोग उससे भड़क जायँ, बिचल जायँ । असली शक्ति किसी संस्था की भीतरी खूबी और ऐतिहासिक श्रावश्यकता ही है। उसी के करते वह शक्तिशाली होती है और यह बात कांग्रेस में मौजूद है। फिर बात-बात में अन्देशा क्यों ? कांग्रेस कोई छुई-मुई नहीं है। वह तो इस्पात की बनी है। किसान-सभा की भी ऐतिहासिक आवश्यकता है, जैसा कह चुके हैं।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस के सफल असहयोग आन्दोलन तथा संघर्ष का परिणाम ही यदि किसान-सभा है तो १६२२-२३ के बाद ही उसकी स्थापना न होकर १६२७-२८ या २६ क्यों हुई ! इतनी देर क्यों ? बात यह है कि विचारों के परिपक्क एवं स्थायी बनने में विलम्ब होने के नियमानुसार ही यहाँ भी देर हुई। प्रतिक्रिया तो हुई,। मगर ·उसे कार्यरूप में परिणत करने के पूर्व उसमें स्थिरता और परस्पर विचार-विमर्श आवश्यक था, उसे परिपक्क होना जरूरी था । यह भी बात है कि इन बातों के लिये समय आवश्यक है। ये एकाएक नहीं होते । इसके अलावा किसान सभाओं के चलाने के लिये जो किसानों के हजारों युवक और पढ़े-लिखे लोग जरूरी थे वे भी असहयोग के करते 'बाहर आये सही, ऊपर आ गये जरूर । मगर उनका भी पारस्परिक विचार- विनिमय जरूरी था इस काम को चालू करने के लिये । राजनीतिक परिस्थिति का डावाँडोल होना, परिवर्तन अपरिवर्तनवाद वाली उस समय की कलह और सत्याग्रह जाँच समिति की कार्यवाही अादि. बातों के चलते भी काफी गड़बड़ रही और इस काम में देर हुई। फलत: यदि दो-चार साल इसी उधेड़-बुन में लग गये तो यह कोई बड़ी बात न थी। इससे प्रत्युत इस काम में दृढ़ता पाई । कम से कम विहार में कांग्रेस के सभी नेता प्रारम्भ में इसमें खिंच आये और उनसे पर्याप्त प्रेरणा भी मिली, यह