कच्चे माल की प्रचुर परिमाण में जरूरत होती है उसके उत्पादन में यह जमींदारी प्रथा बाधक होती है। यह प्रथा भूमि की उत्पादन शक्ति को बेड़ी की तरह जकड़ने वाली मानी जाती है। फलतः मध्यमवर्गीय मालदार ही इसका उन्मूलन करते हैं और भारत में भी "बम्बई-पद्धति" (Bombay Plan) के प्रचारक एवं निर्माण-कर्त्ता, ताता, बिड़ला आदि करोड़पतियों ने ही जमींदारी मिटाने की आवाज गत महायुद्ध के जमाने में ही बुलन्द की थी। पीछे चलकर कांग्रेस नेताओं ने उसे ही माना है। और ताता-बिड़ला का संगठन कोई किसान-सभा नहीं है, यह सभी जानते है। अतः जमींदारी मिटाने की बात इसका प्रमाण नहीं है कि कांग्रेस किसान सभा बन गई। हाँ, यदि क्रान्तिकारी ढंग से जमींदारी मिटाने की बात वह बोलती और वैसा ही करती, जैसा सोवियत रूस में हुआ, तो एक बात थी। तब ऐसा सोचा जा सकता था। हालांकि फ्रांस में क्रान्तिकारी ढंग से ही ऐसा होने पर भी उसके कराने वाले किसान-विरोधी ही सिद्ध हुए। क्रान्तिकारी तरीके के मानी ही हैं जबर्दस्ती जमीनें और जमींदारों का सारी सम्पत्तियाँ छीन लेना और उन्हें राह का भिखारी या महाप्रत्थान का यात्री बना देना।
यह भी सोचना चाहिये कि कांग्रेस तो १९३६-३७ वाले चुनावों में भी पड़ी थी। उसी समय उसने फैजपुर का एक अत्यन्त लचर कार्यक्रम भी इसी सिलसिले में स्वीकार किया था, पर वह भी कांग्रेसी-मंत्रि-मंडलों के बनने पर सर्वत्र खटाई में ही पड़ा रह गया। प्रत्युत युक्तप्रान्त में ऐसा काश्तकारी कानून बनाया उन्हीं मंत्रियों ने जिसके चलते गत महायुद्ध के जमाने में, सरकारी बयान के अनुसार ही, पूरे दस लाख एकड़ जमीन किसानों से जमींदारों ने छीन ली और किसानों में हाहाकार मच गया। उसी का प्रायश्चित्त इस बार वहाँ कांग्रेसी मंत्रियों को करना पड़ रहा है।बिहार में भी ऐसी ही बातें होने वाली थीं। मगर यहाँ किसान सभा की जागरूकता और उसके प्रबल आन्दोलन ने बहुत कुछ रोका। फिर भी, बहुत कुछ अनर्थ हो गये। यदि कांग्रेस ही किसान-सभा होती, तो क्या ऐसा होता? उलटे बिहार की किसान-सभा को कांग्रेसी मंत्रियों और लीडरों