( २०८ ) .. 'पस.अपये स-उसी के बल पर-लड़ना होगा। तभी सफलता मिल सकती है। उधार या मँगनी की रकम से लड़ने में धोखा होगा-अगर बीच में : नहीं तो जीत के बाद तो जरूर ही होगा। कहने के लिये वह जीत किसान मजदूरों की होगी। मगर होगी वह दरअसल उन्हीं की जिनके पैसे लड़ाई में खर्च हुए हैं । पैसे वाले आदमियों को, उनके ईमान को, उनकी प्रात्मा को ही खरीदने की कोशिश करते हैं और आमतौर से खरीद भी लेते हैं। ऊपर से चाहे यह भले ही न मालूम हो । मगर भीतर से तो हमारी प्रात्मा बिक जाती ही है अगर हम दूसरों के पैसों का भरोसा करें । जबान से हम हजार इनकिलाब और किसान मजदूर राज्य की बातें बोलें । मगर इनमें जान नहीं होती । ये बातें कुछ कर नहीं सकतीं। दिल से हम पैसे वालों की ही जय बोलते हैं, उन्हीं का राय से, उन्हीं के इशारे पर चलते हैं। जैसे मोटर का हाँकने वाला उसे अपने कब्जे में रखता है, नहीं तो वह कहीं की कहीं जा गिरेगी, किसी से लड़ जायगी । ठीक वैसे ही पैसे वाला हमें और हमारी लड़ाई को अपने काबू में ही सोलहों अाने रखता है। यही वजह है कि हमारी राय में किसानों और मजदूरों की लड़ाई उन्हीं के पैसे से चलाई जानी चाहिये । उस लड़ाई के लिये असली और खासा भरोसा किसान मजदूरों के ही पैसे पर होना चाहिये। दूसरों की पर्वा हगिज नहीं चाहिये । इतने पर भी अगर कहीं से कुछ पा जाय तो उसे खामखाह फेंक देने से हमारा मतलब नहीं है। मगर उस पर दार-मदार होने में ही ख़तरा है। उधर से लापर्वाही चाहिये। सामान को भी यही बात है। खाना, कपड़ा, अखबार, साहित्य, औफिस वगैरह सभी चीजें जिसके हाथ में रहेंगा वही लड़ाई को चाहे जैसे चलायेगा। ये सामान लड़ाई के मूलाधार है, बुनियाद हैं, प्राण हैं। इसीलिये हम इनके लिये गैरों पर निर्भर कर नहीं सकते । नहीं तो ऐन मौके पर खतरा होगा, रह रहके खतरे खड़े होते रहेंगे। जब न तंब इन सामानों के जुटाने वाले नाक भौं सिकोड़ते रहेंगे और हमसे मनमानी शर्ते' करवाना खामखाइ चाहेंगे। यही दुनियाँ का कायदा है-यही 'मानव-स्वभाव है। .
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