( १८२ ) हासिल हो सकेगा। मैं जहीं जाता वहीं यह सवाल उठता था। मैं भी परीशान था । जवाब तो मैं देई देता। पूछने वालों को और आम किसानों को भी समझा देता कि वे कैसे विजयी हो सकते हैं, हो जायँगे। संसार में किसान कहाँ, कैसे विजयी हो चुके हैं यह बातें उन्हें कहके' समझाता था । मगर आखिर यह सब कुछ परोक्ष और दिमागी दुनियाँ की ही बात होती थी। न तो मैंने ही कहीं किसानों की विजय देखी थी और न किसानों ने ही। सारी की सारी मुनी सुनाई बातें ही थीं। इसलिये मुझे खुद अपने जवाब से सन्तोष न होता था। मैं तो प्रत्यक्ष मिसाल चाहता था कि किस प्रकार अत्यन्त कमजोर भी जबर्दस्तों को हरा देते हैं। बराबर इसी उधेड़-बुन में रहता था कि बकरी को यह अनोखी और ऐतिहासिक लड़ाई देखने को मिल गई ! इससे मेरा काम बन गया। फिर तो यह भी देखा कि अकेली बिल्ली कैसे किसी आदमी पर विजय प्राप्त करती है। मैंने आँखों देखा कि मामूली सी बकरी अपने तीन बच्चों को और अपने श्रापको भी, घंटों दिलोजान से तीन कुत्तों के साथ करारी भिडन्त करने के बाद भी, बचा सकी। यह तो प्रत्यक्ष चीज थी। अगर एक ही कुत्ता चाहता तो डरपोक और पस्त हिम्मत बकरी की हड्डियाँ चबा जाता। और वहाँ तो बकरी के तीन बच्चे भी थे। बकरी को ऐसी हालत में चबा जाना और भी आसान था। क्योंकि उसकी ताकत न सिर्फ अपने बचाने में खर्च हो रही थी, बल्कि उन तीन बच्चों के बचाने की परीशानी में भी बहुत कुछ खर्च होई जाती थी। फिर भी वह सफल रही और अच्छी तरह रही । क्यों ? क्या वजह थी कि वह ऐसा कर सकी? इसका जवाब बातों से क्या दिया जाय १ जिसने उस समय उस बकरी को सूरत और चेहरा- मुहरा नहीं देखा है और जिसने यह अपनी आँखों नहीं देखा कि वह किस तरह लड़ती थी, उसके दिमाग में इस सवाल का जवाब कैसे समायेगा, बैठ जायगा यह मुश्किल बात है। इसे ठीक ठीक समझने के लिये वैसी घटनाओं को खुद देख लेना निहायत जरूरी है। वह एक घटना हजार - लेक्चरों का काम करती है। क्योंकि वह तो "कह सुनाऊँ" नहीं है।
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