. , .( १७७ ) किसान-सभा का नारा बुलन्द करना पड़ा है यह हमने माना। वह उनकी मजबूरी किसान सभा के महत्व को समझ कर हुई और उनने समझा कि इसी का पल्ला पकड़ो तो काम चलेगा, या सचमुच किसान-सभा की सच्ची भक्ति के करते हुई, यह निराला प्रश्न है । इसका उत्तर उस समय दिया जा सकता भी न था। यह तो समय ही बता सकता था कि असल बात क्या है। लेकिन वहाँ जो अाशाजनक असली बात दिखी वह कुछ और ही थी। हमें वहाँ कुछ नौजवान और विद्यार्थी मिले जो कर्मी समाज के ही थे। हमने उनमें जो कुछ पाया वही दरअसल हमारे कामाकी चीज यो। उसी पर हम मुग्ध भी हुए। अपनी उस यात्रा की सफलता भी हमने प्रधानतया उसी जानकारी से मानी। उन छात्रों और युवकों में हमने किसान-सभा और किसान-आन्दोलन की मनोवृत्ति पाई । हमने यह देखा कि वह लोग इसे अपनी चीज सममने लगे हैं । वह यह मानते नजर आये कि हम किसान हैं और हमारी असल संस्था किसान-सभा ही हो सकती है। इसमें वह अपने किसान समाज का उद्धार देखने लगे थे। यह मेरे लिए काले बादलों में सुनहली रेखा नजर आई। एक और चीज भी थी। उनने मुझे हस्तलिखित एक मासिक पत्र दिखाया। में उसका नाम भूलता हूँ। उनने कहा कि प्रतिमास लिख के वे लोग उसे खुद तैयार करते हैं। लेख पोर चित्र दोनों ही दिखे। दोनों ही इस्तलिखित-इस्तनिर्मित थे। उनने मुमते अाग्रह किया कि मैं उसे वाद्यो- पान्त पढ़ के अपनी सम्मति लिख दूं। समय मेरे पास न था। मगर मैंने उनकी इच्छापूर्ति जरूरी समझ उस पत्र' को शुरू से घाखोर तक पढ़ा। लेखक नये नये छात्र घोर जवान लोग ही थे जिन्हें उसकी शिक्षा कभी नहीं मिली थी। व्याकरण वगैरह का ज्ञान भी उन्हें उतना न था। फिर भी जिन भावों को मैंने उन लेखों में पाया उनने मुझे मुग्ध कर दिया। लेखों को गलतियाँ तो मैं भूल ही गया। मेरे सामने तो भाव ही खड़े थे। देश के और कांग्रेस के बड़े से बड़े नेताओं के बारे में निर्मोक समालोचना उस मासिक पत्र के लेखों में थी, सो भी अनेक में। समालोचना भी ऐसी
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