( १६१ ) जनता नहीं है। वह तो निराले ही हैं यह याद रहे। इसीलिये अगर बिहार में हम ऐसा साहित्य बनाना चाहते हैं, तो या तो भोजपुरी, मगही, मैथिली, बंगाली, संथाली और उरांव आदि भाषाओं में ही जुदे जुदे इलाकों के लिये अलग अलग साहित्य रचे या हिन्दी और उर्दू मिलाके एक ऐसी सरल भाषा बना दे जो सभी समझ सके। हिन्दी-उर्दू मिलाने से हमारा मतलब है संस्कृत शब्दों की भरमार वाली हिन्दी और अरबी-फारसी के शब्दों से लदी उर्दू की जगह सरल और सबके समझने लायक भाषा तैयार करने से। दृष्टान्त के लिये 'अज़ीज़म्' या 'अजीजमन' और 'प्रियवर' या 'प्रिय मित्र' की जगह "मेरे प्यारे दोस्त" या "मेरे प्यारे भाई" वगैरह लिखे तो कितना सुन्दर हो और काम चले। जरूरत होने से नये नये शब्दों को भी या तो गढ़ के या दूसरी तरह से प्रचार करते जायेंगे। जो लोग 'हजरत' आदि शब्दों को देख-सुन के चिहुँकते हैं उन्हें याद रखना चाहिये कि हमने, हमारी हिन्दी ने और हमारी जनता ने अरबी- फ़ारसी के हजारों शब्दों को हजम करके अपने को मजबूत बनाया है। इतने पर भी अभी यह भाषा अधूरी सी लगती है । अगर हजारों शब्दों को अपने में मिलाये न होती तो न जाने इसकी क्या हालत होती । हाज़िरी, मतलब, हिफ़ाजत, हाल, हालत, फुर्सत, कसूर, दावा, मुद्दई, अर्ज़, गर्ज, तकदीर, असर, ज़रूरत, फसल, रत्री, खरीफ, कायदा, कानून, अदालत, इन्साफ, तरह, सदर, दिमाग़, ज़मीन, वगैरह शब्दों को नमूने को तरह देखें तो पता चलेगा कि ये और इनके जैसे हजारों शब्द ठेठ अरबी और फारसो के हैं। मगर इन्हें बोलते और समझते हैं न सिर्फ हिन्दी साहित्य वाले, बस्कि बिल्कुल देहात में रहने और पलने वाले गँवार किसान और मज़दूर भी । समय समय पर इनने और हमने इन्हें हजम करके अपने को मजबूत और बड़ा बनाया है। इससे हमारी संस्कृते गिड़ने के बजाय सुधरी है, बनी है। वह कोई छुईमुई नहीं है कि हजरत, वेगम और शदशाह वगैरह बोलने से ही खत्म हो जायगी। यह भी हमारी 5
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