(:१५६ ) पड़ जायगा । जब तक समूचे देश के बाशिन्दों की शारीरिक और मान- सिक उन्नति नहीं हो जाय तब तक देश पिछड़ा का पिछड़ा ही रह जायगा। इसलिये उस समय भी साहित्य का निर्माण श्राम लोगों की ही दृष्टि से होना चाहिये। मुट्ठी भर मध्यवर्गीय लोग साहित्य पढ़-पढ़ाके क्या कर लेंगे १ उनसे तो कुछ होने जाने का नहीं, जब तक किसान, मजदूर और अन्य श्रमजीवी उनका साथ न दें। इसीलिये हर हालत में साहित्य की असली उपयोगिता शोषित जनता के ही लिये है। मगर "दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला। तरुशिखा पर थी तब राजती, कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा", या "पूर्वजों की चरित चिंता की तरंगों में बहो" जैसे साहित्य को, जिस पर मध्यम वर्गीय बाबुनों को नाज है और जिसके ही लिये हिन्दी हिन्दस्तानी की कलह खड़ा करके अाकाश-पाताल एक कर रहे हैं, कितने किसान या मजदूर समझ सकते हैं ? यही हालत है "नहीं मिन्नतकशे तावे शुनीदन दास्ताँ मेरी । खमोशी गुफ़्तगू है वे ज़बानी है ज़बां मेरी" की भी। दोनों ही साहित्य, जिनके लिये हिन्दू और मुसलिम के नाम पर माथाफुडौवल हो रही है, किसानों और मज़दूरों से, कमाने वालों से, आम जनता से लाख कोस दूर हैं । मगर इससे क्या ? मुट्ठी भर मध्यवर्गीय लोग तो इन्हें समझते ही हैं। बाकियों की फिक्र उन्हें हई कहाँ ? असल में साहित्य की ओट में संस्कृति छिपी है और उसकी आड़ में धर्म बैठा है, जिनका उपयोग आम जनता को उभाड़ने में किया जाकर मुट्ठी भर बाबुओं और सफेदपोशों का उल्लू सीधा किया जाता है । जब तक संस्कृति और धर्म, तमद्दत और मजहब के नाश का हौवा ये मध्यम वर्गीय लोग खड़ा न करें किसान मजदूर उनके चकमे में श्रा नहीं सकते और विना इसके काम बनने का नहीं। अाखिर श्राम हिन्दुओं और मुसलमानों के नाम पर ही तो इन्हें नौकरियाँ लेना, सीटों का बँटवारा करना और पैक्ट या समझौता करना है। सीधे लोगों की धार्मिक भावनाओं को उत्तेजित करके, उन्हें उभाड़ कर ही ये काइयाँ लोग अपना काम बना लेते हैं, हालाँकि ऊपर से पक्के बगुला भगत बने
पृष्ठ:किसान सभा के संस्मरण.djvu/२१६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।