( १५५ ) से क्या गर्ज कि आपने धर्म का नाम किस मानी में लिया है ? उनके लिये धर्म का ज़िक्र ही काफी है। उसका अर्थ तो वे खुद लगाते हैं और उनका यह भी दावा है कि उनके सिवाय दूसरा न तो धर्म का मतलब समझ सकता है और न समझने का हक ही रखता है। खूबी तो यह कि उनके इस दावे का समर्थन, इसकी ताईद, जन-साधारण भी करते हैं, इसीलिये उन्हीं की बात मानी जाती है और दूसरों की हवा में मिल जाती है चाहे वे कितने ही बड़े महात्मा और पैगम्बर क्यों न कहे जायें । और जब पण्डित और मौलवी उस मामले में आ घुसे तो फिर लोगों को अपने ही रास्ते पर ले जायँगे। वे जो कहेंगे आमतौर से वही बात मान्य होगी। यही कारण है कि खान-पान आदि के मामले में उन्हीं की बात चलती है और ऊपर लिखी घटनायें होती हैं, होती रहेंगी। लेकिन अगर कुछ लोग ऐसा नहीं करते तो यह स्पष्ट है कि गांधी जी के हजार चिल्लाने पर भी उनके दिल में धार्मिक भाव है नहीं, उनने धर्म को कभी समझा या माना है नहीं। तब आज क्यों मानने लगे? यदि धर्म की बात बोलते हैं तो तिर्फ जबान से हो । चाहे गांधो जो इसे माने या न मानें । मगर यह कटु सत्य है।
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