( १५३ ) लोगों ने उस उत्सव में निमंत्रित किया कि कृष्ण के बारे में उनका कुछ प्रवचन हो। मौलवी साहब ने कबूल भी कर लिया। कुछी दिन पहले जब हजरत मुहम्मद साहब का जन्मोत्सव मुसलमानों ने मनाया था तो उनने सभी हिन्दुओं को बुलाया था। कइयों ने उनके जीवन पर कुछ प्रवचन किया भी था। इसलिये इस बार मौलवी साहब का बुलाया जाना और उनका कबूल करना इस खयाल से भी मुनासिब ही था। लोग कहते हैं कि दोनों के धार्मिक उत्सवों में अगर दोनों ही योग दें या दिल से शरीक हों तो धामिक झगड़े खुद मिट जायें। बात चाहे कुछ भी हो । लेकिन कांग्रेसी लोग ऐसा जरूर मानते हैं। इसीलिये तो जन्माष्टमी में मौलवी: साहब का शामिल होना गौरव की बात थी, खुशी की चीज थी। मगर इस बात में कई सत्याग्रही हिन्दू सख्त विरोधी हो गये। उनमें एकाध तो निहायत सीधे और अनजान थे। मगर दो एक तो ऐसे थे कि दिन रात गांधी जी की ही दुहाई देते रहते हैं। सबसे मजे की बात यह. थी कि जिन जमींदार गांधीवादी की बात खाने-पीने के बारे में अभी कह'. चुके हैं वह इस बात के सख्त विरोधी थे कि मौलवी साहब उसमें शामिल हों या कुछ भी बोलें। कृष्ण के बारे में मौलवी साहब को बोलने देना वे हर्गिज नहीं चाहते थे और इस बात पर उनने घुमा-फिरा के चालाकी से बहुत जोर दिया। साफ तो बोलते न थे कि धर्म की बात है। क्योंकि इसमें बदनाम जो हो जाते। इसलिये घुमा-फिरा के बराबर कहते फिरते थे। उन्हें बड़ी तकलीफ हुई। जब उन्हें पता लगा कि मौलवी गये और बोले भी। उनने पीछे उलाहने के तौर पर कहा कि आखिर आप गये और बोले भी ? माना नहीं ? एकाध को तो यहाँ तक साफ ही कहते सुना कि धर्म ही चौपट हो गया। मगर ये सभी घटनायें वाजिब हुई, इस मानी में कि जब धर्म को ही छाप हमारे सारे राजनीतिक और आर्थिक कामों पर लगी हुई हैं तो दूसरी बात होई कैसे सकती है ? गांधी जी चाहे धर्म की हजार व्याख्या करें और उसे बिल्कुल ही नया जामा पहना डालें जो राजनीति में आने ,
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