, ( १५२ ) से उनका खाना अपवित्र हो गया । मेरे लिये यह सममाना गैरमुमकिन था। मैं भी खुद बना के खाता हूँ और छूना-ठूत से परहेज करता हूँ खाने पीने में । मगर इसका यह अर्थ नहीं कि किसी मुसलमान, ईसाई या अस्पृश्य कहे जाने वाले के स्पर्श से 'खाद्य पदार्थों को अखाद्य मान लेता हूँ। मेरी छुआ-छूत का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है । यदि कभी कोई मुसलिम या अछूत मेरी रोटी, मेरा भात छूदे तो भी मैं उसे खा लूँगा। मगर सदा ऐसा नहीं करता। वह इसलिये कि आमतौर से लोगों की भीतरी और बाहरी शुद्धि के बारे में कहाँ ज्ञान रहता कि कौन कैसा है ? किसने घृणिततम काम किया है या नहीं कौन कैसी संक्रामक बीमारी में फंसा है या नहीं यह जाना नहीं जा सकता । इसीलिये साधारणतः मैं किसी का छूना हुअा नहीं खाता हूँ, जिसे बखूबी नहीं जानता । यही मेरी छूया-छूत का रहस्य है। मगर उन गांधीवादी महोदय को मैं खूब जानता हूँ। वह इस तरह की छूत्रा-छूत नहीं मानते हैं। उनके लिये ऐसा मानना असंभव भी है। उनकी छूया-छूत तो वैसी ही है जैसी आम हिन्दुओं की । जब एक मुसलिम सजन ने मौलवी ने जो मेरी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पकड़ा तो वे हजरत मेरा दृष्टांत देके ही पार हो जाना चाहते थे। मगर मौलवी ने उनकी एक न चलने दी और आखिर निरुत्तर कर दिया। एक तीसरी घटना भी सुनने योग्य ही है । जेल में कुछ प्रमुख लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को धार्मिक ढंग से मनाने की तैयारी कर रहे थे। उसमें शामिल तो सभी थे एक मुमको छोड़ के। क्योंकि मैं कृष्ण को धर्म की कट्टरता से कहीं परे और बाहर मानता हूँ। मेरे जानते वह एक बड़े भारी जन-सुधारक और नायक थे। उन्हें या उनकी गीता को धामिक जामा पहनाना उनकी महत्ता को कम करना है। वह और उनकी गीता सार्वभौम पदार्थ हैं। इसीलिये मैं उन्हें धार्मिक रूप देने में साथी बनना नहीं चाहता । इसीसे उस उत्सव से अलग रहा। कोई दूसरा कारण न था । मगर और लोग तो शरीक थे ही। जिन मौलवी साहब का जिक्र अभी किया है उन्हीं को दो एक प्रमुख
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