२२ जेल में हमें और भी कई मजेदार बातें देखने को मिलीं। किसान-सभा- वादियों को तो यह पक्की धारणा है कि किसानों की आर्थिक लड़ाई के जरिये ही उनके हक उन्हें दिलाये जा सकते हैं। उनका स्वराज्य भी इसी तरह आयेगा। वह यह भी मानते हैं कि किसानों के बीच जहाँ धर्म-वर्म का नाम लिया कि सारा गुड़ गोबर हो गया । धर्म के मामले में जिसे जो करना होगा करेगा, या नहीं करेगा । यह तो हरेक श्रादमी की व्यक्तिगत बात है कि धर्म माने या न माने और माने तो कौन सा धर्म और किस प्रकार माने। मन्दिर, मस्जिद या गिर्जे में जायगा या कि न जायगा यह फैसला हरेक आदमो को अपने लिये खुद करना होगा। किसान-सभा इस मामले में हगिंज न पड़ेगी। वह इससे कोसों दूर रहेगी। नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जायगा। हम किसनों और मजदूरों या दूसरे शोषितों की लड़ाई में पंडित, मौलवी और पादरी की गुंजाइश रहने देना नहीं चाहते । हमें ऐसा मौका देना ही नहीं है जिसमें वे लोग किसानों की बातों में "दाल-भात में मूसरचन्द" वर्ने । नहीं तो बना बनाया काम बिगड़ जायगा । क्योंकि धर्म की बात बाते ही किसान-सभा वालों को बोलने का हक रही न जायगा और पंडित, मौलवी आ टपकेंगे। धर्म उन्हीं के अधिकार की चीज जो है। वहाँ दूसरों की सुनेगा भी कौन? इस बात का करारा अनुभव हमें इस बार जेल में हुअा। जो लोग गांधी जी के नाम पर ही जेल श्राये थे और अपने श्राप को पक्के गांधीवादी मानते थे उन्हीं की हरकतों ने हमें साफ तुझा दिया कि आजादी के मामले में लड़ाई लड़ने वाले लोगों के सामने हर बात को धर्म के रूप में चार बार लाके गांधी जी मुल्क का कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। राजनीति में धर्म का चाहे किसी भी ऊँचे से ऊँचे और आदर्श रूप में भी मिला देने से कितना अनर्थ हो
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