( १३१ ) और जगह भी ऐसी घटनायें हुई । इसलिये उनका डरना और सतर्क होना जरूरी था। जिस दिन हम कालोल पहुँचे उसके ठीक पहले दिन एक गाँव में एक साहुकार से कुछ बातें भी ऐसी हो गई कि वह चौंक पड़ा, और बहुत संभव है कि उसने भी कालोल में सनसनी पैदा की हो। बात यों हुई कि उसने किसानों की फजूलखचों की शिकायत करते हुए यह कह डाला कि ये लोग शहरों जाके सैलूनों में बाल कटवाया करते हैं । सैलून अंग्रेजी ढंग की जगहें होती हैं जहाँ बाबु पानी ढंग से नाऊ लोग हजामत बनाते और ज्यादा पैसे मजदूरी में लेते हैं । साहुकार को खटकता था कि ये लोग मेरा कर्ज और सूद चुकता न करके फिजूल पैसे खर्च डालते हैं। इसीसे उसने मुझसे उनकी शिकायत की। मगर मैंने मल्लाके कहा कि क्या ऐसा बराबर होता है या कभी कभी ? उसने उत्तर दिया कि केवल कभी कभी। इस पर मैंने उसे डाँटा कि यही चीज तुम्हें चुभ गई ? अाखिर किसान लोग पत्थर तो हैं नहीं । ये भी मनुष्य हैं। इन्हें भी अभिलापायें और वासनायें हैं। इसीलिये कभी कभी उन्हें पूरा कर लेते हैं। जो लोग इन्हीं की कमाई के पैसे सूद, कर्ज, लगान यादि के रूप में लूट के बराबर ही सैलूनों में जाते और गुलहरें उलाते है उन्हें शर्म होनी चाहिये, न कि इन किसानों को। ये तो अपने ही कमाई के पैसे से कभी कभी ऐसा करते हैं और यह अनिवार्य है। मगर आपको अमीरों की बात नहीं खटक के इनकी ही क्यों खटकती है ? ये किसे लूट के सैलून में जाते हैं ? इस पर वह साहुकार हका-बका हो गया। उसे यह आशा न थी कि में ऐसा कहूँगा । वह तो मुझे गांधीवादियों की तरह समाज सुधारक समनता था । फलतः मेरी बात सुनके उसे अचम्मा हुना । शायद उसीने कालोल में ज्यादा सनसनी फैलाई हौं, तो कालोल में पहुँचने पर शहर से बाहर एक बाग में जो रेलवे स्टेशन के पास ही है, हम जा ठहरे । हमारे व्हरने का प्रबन्ध परले से ही वहीं था। बाग में पहले एक कारखाना था जो तहस-नहस की हालत में . -
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