( १२८ ) जल के खाक हो गये। फलत; हमने बहुत ही शोर किया और समांपति श्री सुभाष बाबू पर जोर दिया कि उन्हें रोकें । पहले तो सभापति जी हिचकते रहे और सरदार साहब भी लापर्वाह होके बकते जाते थे। मगर जब परिस्थिति वेढब हो गई और शोर बहुत बढ़ा तो उनने रोका, जिससे वे एकाएक अपना सा मुँह लेके बैठ गये। इस प्रकार बारदौली की भूमि में ही उनकी नाक कट गई सिंह अपनी मांद में ही सर हो गया । हरिपुरा के पीछे कुछ महीने गुजर जाने पर फिर गुजरात में दौरा करने का मौका आया । इस बार श्री इन्दुलाल याज्ञिक और उनके साथियों ने संगठित किसानों की सभायें प्रायः गुजरात के हर जिले में की। अहमदाबाद शहर में ही नहीं, किन्तु देहात में भी एक सभा हुई। हरिपुरा के बाद किसानों की कई संगठित लड़ाइयां भी हो चुकी थीं और विशेष. रूप से बड़ौदा राज्य के घोर दमन का शिकार उन्हें तथा हमारे प्रमुख किसान सेवकों को होना पड़ा था। उनकी कितनी ही मीटिंगे दफा १४४ की नोटिस और पुलिस की मुस्तैदी के करते रोकी गई। फिर भी लड़ाई चलती रही । यद्यपि बड़ौदा सरकार का कानून है कि किसान से नगद लगान ही लेना होगा, न कि बँटाई । फिर भी साहुकार जमींदार यह बात मानते न थे। खूबी तो यह कि यदि साल में दो फसलें हों तो दोनों में ही प्राधा हिस्सा लेते थे । फलतः किसानों ने वटाई देने से इनकार कर दिया । सरकार को इस पर उनका और किसान-सभा का कृतज्ञ होना चाहता था । मगर उलटे दमन चक्र चालू हो गया। असल में सरकारें तो मालदारों की ही होती हैं । इसलिये उनका फर्ज हर हालत में यही होता है कि धनियों की रक्षा करें । वे कानून तोड़ते हैं तो बला से । शोषित जनता को सिर उठाने नहीं देते। असली चीज कानून नहीं है, किन्तु कमाने वाली, पर लुटी जाने वाली, जनता को चाहे जैसे हो सके दवा रखना ही असल चीज है। कानून भी इसी गर्ज से बनाये जाते हैं | मगर अगर कहीं कानून की पाबन्दी के चलते ही जनता सिर उठा ले तो उसकी पापन्दी से बढ़के भूल.और क्या हो सकती है ? यही कारण है कि जमींदारों और मालदारों .
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