( १२७ ) सरदार बल्लभ भाई का सख्त हुक्म है कि बिना उनकी श्राज्ञा के विठ्ठल नगर. के भीतर.कोई भी मीटिंग या प्रदर्शन होने न पाये । हमें यह चीज बुरी लगी। हमने कहा कि सरदार साहब या उनकी स्वागत समिति को यह हक हर्गिज नहीं है कि ग्राम सड़क पर जलूस रोक दें । जब तक पुलिस या मजिस्ट्रेट की ऐसी मुनादी न हो तब तक तो हमें कोई रोक सकता नहीं । हाँ, मुनादी. हो जाने पर कानून तोड़ने की नौबत आयेगी। मगर सरदार या उनके साथियों को न तो पुलिस का अधिकार प्राप्त है और न मजिस्ट्रट का ही। फिर उनकी नादिरशाही के सामने हम क्यों सिर मुकायें ? नतीजा यह हुआ कि हम और हमारे साथी श्री इन्दुलाल याशिक वगैरह किसी से भी पूछने न गये और जलूस निकला खूब ठाट के साथ । पचीस तीस हजार से कम लोगों का जलूस नहीं था। साहुकारों से त्राण दिलाने और हालो प्रथा मिटाने आदि के नारे मुख्य थे। हाली और दुबला या गुलाम ये सब एक ही हैं । मीटिंग भी बहुत हो जम के हुई। मैं ही अध्यक्ष था। मेरे सिवाय याशिक, डाक्टर सुमन्त मेहता आदि अनेक सज्जन बोले। सरदार बल्लभ भाई यह बात देख के भीतर ही भीतर श्रागबबूला हो गये सही। मगर मजबूर थे । इसीलिये किसी न किसी बहाने से अपने दिल का बुखार निकालते रहे । रह रह के बिना मौके के ही हम लोगों पर तानाजनी करते रहे । एक बार तो वहाँ पली गायों के बारे में यों ही लेक्चर देते हुए बोल बैठे कि हम तो इन गायों को पसन्द करते हैं जो न तो प्रस्ताव करती हैं और न उनमें सुधार पेश करती हैं। ये तो क्रान्ति और जमींदारी या पूँजीवाद मिटाने की भी बातें नहीं करती हैं । किन्तु दूध दिये चली जाती है। जिससे हमारा काम चलता है। इसी तरह के अनेक मौके पाये। एक बार तो खास विषय समिति में ही विना वजह और बिना किसी. प्रसंग के ही विशेषत: मुझे और साधारणतः सभी वामाक्षियों को लक्ष्य करके न जाने वह क्या क्या बक गये । यहाँ तक हो गया कि सभी लोग.
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